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Saturday, May 26, 2012

हाशिये













तुमने कितना कुछ
सिखाया है ना मुझे !
हाशिये पर सरकाये हुए
सवाल हमेशा
अनुत्तरित ही रहते हैं !
हाशिये पर रुके हुए कदम
कभी मंज़िल तक का सफर   
तय नहीं कर पाते !
हाशिये पर टिके रिश्ते
आजीवन बेमानी
ही रह जाते हैं !
हाशिये पर रोपी हुई
महत्वाकांक्षायें कभी
अंकुरित नहीं हो पातीं !
हाशिये पर देखे गये
स्वप्न कभी
साकार नहीं हो पाते !  
हाशिये के
उथले पानी में
ज़िंदगी की नाव कभी
आगे नहीं बढ़ पाती !
हाशिये पर
ठिठक कर रुक जाने से
हर खुशी, हर सुख,
हर उम्मीद
अधूरी रह जाती है !
लेकिन क्या कभी
तुमने भी जाना है
हाशिये पर सरकाये जाने का
क्या अर्थ होता है ?  

साधना वैद !  

Tuesday, May 22, 2012

शहर का खुश चेहरा : शाहजहाँ गार्डन


घर से बाहर कहीं जाना हो तो प्राय: सुबह नौ दस बजे के बाद ही निकलना होता है ! सड़कें इस समय भीड़ से अटी पड़ी होती हैं और लोगों के चेहरों पर जल्दबाजी, तनाव और झुँझलाहट के भाव स्पष्ट रूप से दिखाई देते हैं ! सबको अपने गंतव्य तक पहुँचने की जल्दी होती है ऐसे में किसीका वाहन ज़रा सा किसीको छू तो ले लोग लाल पीले होकर सामने वाले पर पिल पड़ते हैं, सिग्नल पर ट्रैफिक जाम हो जाए तो सहयात्रियों पर चिड़चिड़ाते हैं, जो औरों से नहीं उलझते वे अधीर होकर हॉर्न पर हॉर्न बजाये जाते हैं जैसे इनका हॉर्न सुन कर ही सिग्नल ग्रीन हो जाएगा, अभद्र टिप्पणी या छेड़छाड़ का मामला हो तो हाथापाई पर उतर आते हैं, महिलायें सब्जी वाले से मोल भाव करते हुए झगड़ती हैं तो पड़ोसी अपने घर के सामने दूसरे की गाड़ी पार्क होते देख आपा खो बैठते हैं, बच्चे ज़रा-ज़रा सी बात पर आस्तीनें चढ़ा मार पीट करने लगते हैं ! यह सब देख ऐसा लगने लगा था कि शायद अब लोगों में धैर्य, सहिष्णुता और सद्भावना का नितांत अभाव होता जा रहा है या ज़िंदगी में तनाव और ज़द्दोज़हद इतनी बढ़ गयी है कि लोग एक दूसरे के साथ प्यार से बात करना और मुस्कुराना ही भूल गए हैं ! लेकिन कुछ दिनों से सुबह की सैर के लिए शाहजहाँ गार्डन जाना शुरू किया है और वहाँ जो अनुभव मिले वे मेरी इस धारणा को पूरी तरह से निर्मूल कर गए !
हमारे आगरा में शाहजहाँ गार्डन से ही सटा हुआ है मोती लाल नेहरू उद्यान जिसका नाम पहले विक्टोरिया पार्क हुआ करता था ! दोनों गार्डंस को मिला कर एक बहुत विशाल, सुरक्षित और प्राकृतिक सौंदर्य से भरपूर क्षेत्र सैर करने वालों के लिए शहर में ही उपलब्ध हो गया है जिसमें अंदर ही अंदर अनेकों छोटे बड़े ट्रैक्स बने हुए हैं ! व्यक्ति अपनी ज़रूरत, समय और शक्ति के अनुसार इनमें चुनाव कर अपने लिए उपयुक्त विकल्प का चयन कर सकता है ! पार्क में चारों तरफ हरियाली ही हरियाली है और यह अनेक छोटे-छोटे हिस्सों में बँटा हुआ है जहाँ हर उम्र, धर्म, जाति और वर्ग के लोग नाना प्रकार की स्वास्थ्य व मनोरंजन से जुड़ी गतिविधियों में लीन दिखाई देते हैं ! यहाँ आकर शहर का एक नया ही चेहरा देखने को मिला और उसे देख कर सच में बहुत खुशी और संतोष का अनुभव हुआ ! जगह-जगह लोग कहीं समूह में तो कहीं अकेले योगा करते हुए दिख जाते हैं ! महिलाओं के भी अनेकों छोटे बड़े ग्रुप्स दिखाई देते हैं ! कहीं वे आपस में घर गृहस्थी की बातें करती दिखाई देती हैं तो कहीं बाबा रामदेव की सिखाई योग क्रियाएँ करती मिल जाती हैं ! अनेकों स्थान पर दरी बिछाकर लोग किसी योग गुरू के निर्देशन में व्यायाम करते हुए मिल जाते हैं ! आम लोगों में योगा के प्रति इतनी जागरूकता फैलाने का सारा श्रेय बाबा रामदेव को दिया जाना चाहिए ! पार्क में जगह-जगह खुले मैदानों में बच्चे क्रिकेट, फुटबॉल, वौलीबॉल या बैडमिंटन खेलने के लिए आते हैं ! बुर्के से ढकी मुस्लिम महिलायें भी अक्सर बैडमिंटन खेलती हुई मिल जाती हैं ! बच्चे पत्थरों से बने साफ़ सुथरे और चिकने ट्रैक्स पर जम कर स्केटिंग की प्रैक्टिस करते हैं ! कुछ पेड़ों पर पुल अप्स करते मिल जाते हैं तो कुछ ग्राउंड में सिट अप्स करते मिल जाते हैं ! किसीके भी चहरे पर तनाव या चिंता की लकीरें दिखाई नहीं देतीं ! सारा शहर जैसे मौज मस्ती और जश्न मनाने के मूड में नज़र आता है !
पार्क में घने पेड़ों से आच्छादित कई गहरी घाटियाँ हैं ! जिनमें तरह-तरह के खूबसूरत फूलों वाले पेड़ लगे हुए हैं ! सुबह-सुबह पीले फूलों के गुच्छों से सुसज्जित अमलतास के ऊँचे घने पेड़ घाटी में फानूस की तरह जगमगाते दिखाई देते हैं ! जहाँ भी अमलतास के पेड़ पार्क में लगे हैं ऐसा लगता है वहाँ रोशनी दोबाला हो गयी है ! मुझे पेड़ों के बारे में अधिक जानकारी तो नहीं है लेकिन जिन पेड़ों को मैं पहचान पाई उनमें गुलमोहर, सहजन, शीशम, मौलश्री, अंजीर, केसिया, कचनार, ढाक, देसी बबूल, यूकेलिप्टस, इमली, नीम, लसोड़ा, अशोक, चन्दन, पाकड़, सेमल और चिरौंजी इत्यादि हैं ! इनके अलावा फूलों के छोटे बड़े पेड़ भी अनेक हैं जिनमें कई रंगों के कनेर, चम्पा, चमेली, हरसिंगार. चाँदनी, गुड़हल, लगभग हर रंग के वगन वेलिया और विभिन्न प्रकार के पाम यहाँ पार्क के विभिन्न हिस्सों में दिखाई देते हैं ! किस्म-किस्म की बेलें भी पेड़ों पर आच्छादित दिखाई देती हैं जिनके खूबसूरत फूल आमंत्रण देते से प्रतीत होते हैं ! इनके अलावा पानी से भरे छोटे बड़े कई वाटर पॉइंट्स भी हैं जिनमें अक्सर प्रवासी पक्षी भी दिखाई दे जाते हैं ! पार्क में सुबह-सुबह अनेकों पंछियों की मधुर आवाजें सुनाई देती हैं ! कोयल और मोर की मीठी बोली सुन कर मन हर्षित हो जाता है ! अनेकों दयालु पर्यावरण प्रेमी लोग थैलियों में दाने भर कर आते हैं और जगह-जगह पर पंछियों को खिलाने के लिए धरती पर बिखेर देते हैं जिन्हें देख कर अनेकों कबूतर, तोते, गोरैया, गिलहरियाँ और गलगलियाँ पंख पसारे झुण्ड के झुण्ड वहाँ आ जुटते हैं और दाने चुगने लगते हैं ! पार्क में हर जगह सैकड़ों मिट्टी के पात्र पंछियों की प्यास बुझाने के लिए पानी से भरे हुए रखे मिलते हैं ! कई लोग बंदरों और कुत्तों के लिए भी रोटियाँ बना कर लाते हैं ! अपने आसपास इतने सहृदय लोगों को देख कर अत्यंत प्रसन्नता होती है ! एक आम आदमी जो हर रोज ना जाने कितने संकटों का सामना करता है और ना जाने कितने तनावों से गुजरता है उसका चेहरा सुबह पार्क में मिलने वाले लोगों के इन चेहरों से बिलकुल अलग है !
इन तमाम खूबियों के बाद भी पार्क में जो अखरा वह यह था कि जिन बातों के लिए स्थान-स्थान पर कई निषेधाज्ञा के बोर्ड लगे हुए हैं लोग उन्हीं चीज़ों में संलग्न रहते हैं जैसे फूल पत्तियों को तोड़ना, पेड़ों की नाज़ुक टहनियों पर लटकना, ट्रैक्स पर साइकिल और स्कूटर चलाना आदि ! इन समस्याओं का निदान होना आवश्यक है !
कितना अच्छा हो कि इस पार्क में पेड़ पौधों की जानकारी देने के लिए समय-समय पर विशेषज्ञों के साथ भ्रमण की व्यवस्था भी हो जाए जिससे हम जैसे अनेकों जिज्ञासु और प्रकृतिप्रेमी लोगों का ज्ञानवर्धन हो सके !
सुबह की इस सैर ने हमें आगरा शहर के एक नये रूप से परिचित कराया है और अपने शहर का यह रूप हमें वास्तव में बहुत मनमोहक लगा है ! इसमें कोई दो राय नहीं कि सर्व धर्म समभाव और अनेकता में एकता का शाहजहाँ गार्डन से बेहतर उदाहरण कहीं और नहीं मिल सकता है ! और हमें अपने शहर की इस अनमोल धरोहर पर गर्व है !

साधना वैद


Thursday, May 17, 2012

लकीरें














हाथों की लकीरों में
ज़िंदगी उसी तरह उलझ गयी है
जैसे बहुरंगी स्वेटर बुनते वक्त
सारी ऊनें उलझ जाती हैं और
जब तक उन्हें पूरी तरह से
सुलझा न लिया जाये
एक फंदा भी आगे बुनना
असंभव हो जाता है !
भागती दौड़ती
सुबह शामों के बीच
किसी तरह समय निकाल
स्वेटर की उलझी ऊन को तो
मैं फिर भी सुलझा लूँगी
लेकिन पल-पल दामन छुड़ा
चोरों की तरह भागती
इस ज़िंदगी ने तो
इतना वक्त भी नहीं दिया है कि
हाथों की इन लकीरों को मिटा
तकदीर की तख्ती पर कोई
नयी इबारत लिख सकूँ !
अब नसीब में जो कुछ
हासिल होना लिखा है
हाथ की इन्हीं उलझी  
लकीरों में छिपा है !
बस कोई इन लकीरों को
सुलझाने की तरकीब
मुझे बता दे !

साधना वैद


Friday, May 11, 2012

ममता की छाँव



 













आने वाला रविवार मातृ दिवस के रूप में मनाया जाने वाला है ! माँ की याद, उनके प्रति अपनी श्रद्धा या समर्पण की भावना क्या किसी दिवस विशेष के लिये सुरक्षित रखी जा सकती है ! यह तो उस प्राण वायु के समान है जो जीने के लिये अनिवार्य है और जो हमें हमारी हर साँस और हृदय के हर स्पंदन के साथ अपने ज़िंदा होने का अहसास कराती है ! हमें जीने के लिये प्रेरित करती है ! इसलिए माँ के नाम यह पैगाम आज ही भेज रही हूँ !
 

वह तुम्हीं हो सकती थीं माँ
जो बाबूजी की लाई
हर नयी साड़ी का उद्घाटन
मुझसे कराने के लिये
महीनों मेरे मायके आने का
इंतज़ार किया करती थीं ,
कभी किसी नयी साड़ी को
पहले खुद नहीं पहना ! 

वह तुम्हीं हो सकती थीं माँ
जो हर सुबह नये जोश,
नये उत्साह से
रसोई में आसन लगाती थीं
और मेरी पसंद के पकवान बना कर
मुझे खिलाने के लिये घंटों
चूल्हे अँगीठी पर कढ़ाई करछुल से
जूझती रहती थीं !
मायके से मेरे लौटने का
समय समाप्त होने को आ जाता था
लेकिन पकवानों की तुम्हारी लंबी सूची
कभी खत्म ही होने को नहीं आती थी ! 

वह तुम्हीं हो सकती थीं माँ
मेरा ज़रा सा उतरा चेहरा देख
सिरहाने बैठ प्यार से मेरे माथे पर  
अपने आँचल से हवा करती रहती थीं
और देर रात में सबकी नज़र बचा कर
चुपके से ढेर सारा राई नोन साबित मिर्चें
मेरे सिर से पाँव तक कई बार फेर
नज़र उतारने का टोटका
किया करती थीं !  

वह तुम्हीं हो सकती थीं माँ
जो ‘जी अच्छा नहीं है’ का
झूठा बहाना बना अपने हिस्से की  
सारी मेवा मेरे लिये बचा कर
रख दिया करती थीं
और कसम दे देकर मुझे
ज़बरदस्ती खिला दिया करती थीं !

सालों बीत गये माँ
अब कोई देखने वाला नहीं है
मैंने नयी साड़ी पहनी है या पुरानी ,  
मैंने कुछ खाया भी है या नहीं ,
मेरा चेहरा उदास या उतरा क्यूँ है ,
जी भर आता है तो
खुद ही रो लेती हूँ
और खुद ही अपने आँसू पोंछ
अपनी आँखें सुखा भी लेती हूँ
क्योंकि आज मेरे पास
उस अलौकिक प्यार से अभिसिंचित
तुम्हारी ममता के आँचल की 
छाँव नहीं है माँ
इस निर्मम बीहड़ जन अरण्य में
इतने सारे ‘अपनों’ के बीच
होते हुए भी
मैं नितांत अकेली हूँ !  

साधना वैद

 

Sunday, May 6, 2012

ओ नन्हे से परिंदे !



ओ नन्हें से परिंदे
मुझे तुमसे बहुत कुछ सीखना है !

सीखना है कि
दिन भर की अपनी थकान को
सहज ही भुला तुम
अपने छोटे-छोटे से पंखों में
कहाँ से इतनी ऊर्जा भर लाते हो
कि पलक झपकते ही
आकाश की ऊँचाइयों में विचरण करते  
घने मेघों से गलबहियाँ डाल
चहचहा कर तुम ढेर सारी
बातें करने लगते हो !


सीखना है कि  
कहाँ से तुमने इतना हौसला जुटाया है
कि लगभग हर रोज़
कभी इंसान तो कभी बन्दर
तुम्हारा यत्न से सँजोया हुआ
घरौंदा उजाड़ देते हैं  
और तुम निर्विरोध भाव से  
तिनका-तिनका जोड़
पुन: नव नीड़ निर्माण के  
असाध्य कर्म में बिना कोई उफ़ किये
एक बार फिर से जुट जाते हो !

सीखना है कि
कहाँ से तुम धीर गंभीर
योगी तपस्वियों जैसी  
असम्पृक्तता, निर्वैयक्तिकता
और दार्शनिकता की चादर
ओढ़ पाते हो कि अपने 
जिन नन्हे-नन्हे चूजों की चोंच में  
दिन रात के अथक श्रम से  
एकत्रित किये दानों को चुगा कर
तुम उन्हें जीवनदान देते हो,
दिन रात चील, कौए 
गिद्ध, बाजों से उनकी 
रक्षा करते हो ,
सक्षम सशक्त होते ही
तुम्हें अकेला छोड़ वे
फुर्र से उड़ जाते हैं 
और उनके जाने के बाद भी  
निर्विकार भाव से 
बिना स्वर भंग किये
हर सुबह तल्लीन हो तुम  
उतने ही मधुर, 
उतने ही जीवनदायी,
उतने ही प्रेरक गीत 
गा लेते हो !

ओ नन्हें से परिंदे अभी
मुझे तुमसे बहुत कुछ सीखना है !

साधना वैद !

Tuesday, May 1, 2012

पढ़ी लिखी लड़की____


श्रम दिवस के उपलक्ष्य में विशेष

सड़क मार्ग से सफर करो तो कई बार ट्रक्स के पीछे बड़ी शानदार शायरी पढ़ने के लिये मिल जाती है ! ऐसे ही एक सफर में -‘पढ़ी लिखी लड़की, रोशनी घर की’ के जवाब में एक मज़ेदार सा शेर पढ़ने को मिला ! ज़रा आप भी मुलाहिज़ा फरमाइये ‘पढ़ी लिखी लड़की, न खेत की न घर की !’
उस समय तो इस शेर के रचयिता के मसखरेपन का मज़ा लेकर हँस दिये और फिर उसे भूल भी गये लेकिन चंद रोज़ पहले चौका बर्तन का काम करने वाली एक अशिक्षित महिला की बातों ने मुझे सोचने के लिये विवश कर दिया कि हमारी सामाजिक व्यवस्था या सरकारी नीतियों में कहाँ कमी है कि इस वर्ग के लोगों की मानसिकता लड़कियों की शिक्षा के पक्ष में ना होकर विपक्ष में मज़बूत होती जा रही है !
दीदी के घर में घरेलू काम करने के लिये एक कम उम्र की युवा लड़की रमा आती है ! रमा की कहानी भी बड़ी दर्दभरी है ! कम उम्र में प्यार कर बैठी ! घर से भाग कर शादी कर ली ! तीन साल में तीन बार गर्भवती हुई ! दो बार जन्म से पहले ही बच्चे गँवा बैठी ! तीसरे बच्चे को जन्म दिया तब उसकी उम्र शायद सोलह सत्रह बरस की रही होगी ! जीवन की मुश्किलों का सामना करते-करते प्यार कहीं तिरोहित हो गया और प्रेमी पति बीबी और दुधमुँहे बेटे को इतने बड़े संसार में कठिनाइयों से जूझने के लिये अकेला छोड़ कर अपने लिये नया आकाश तलाशने  कहीं और निकल गया ! बेसहारा रमा अपने नन्हें से बच्चे को लेकर अपनी सास के पास लौट आई जिसने दरियादिली का प्रदर्शन कर उसे अपने घर में पनाह दे दी ! रमा कक्षा आठ तक पढ़ी हुई थी ! शायद होशियार भी थी ! मोबाइल के एस एम एस पढ़ना, डिलीट करना या भेजना वह सब जानती थी ! दीदी उसकी होशियारी की कायल थीं और उसे प्राइवेट आगे पढ़ाना चाहती थीं ! उनका विचार था कि एक साल में हाई स्कूल कर लेगी तो इसी तरह प्राइवेट इम्तहान देकर तीन चार साल में ग्रेजुएशन कर ही लेगी और फिर उसे टीचर का जॉब मिल जायेगा और उसका जीवन सँवर जायेगा ! रमा भी उत्साहित थी !
लेकिन दीदी और रमा का यह् हवाई किला एक दिन पल भर में ही धराशायी हो गया ! कदाचित रमा ने इस योजना का ज़िक्र अपनी सास से कर दिया था ! एक दिन लाल पीली होकर वह दीदी के घर आ धमकी !
मैडम जी आप मेरी बहू को मत बरगलाओ ! हमें नहीं पढ़ाना है उसे और ! वह जैसी है जितना पढ़ी है उतना ही ठीक है !
दीदी ने उसे बहुत समझाने की कोशिश की वह पढ़ लेगी तो टीचर बन जायेगी और इज्ज़तदार काम करेगी ! उसे इस तरह घर-घर जाकर चौका बर्तन का काम नहीं करना पड़ेगा !
तो क्या कमाल कर लेगी टीचर बन कर ? तपाक से रमा की सास का जवाब आया ! स्कूल में पढ़ाने जायेगी तो पाँच सौ छ: सौ रुपये से ज्यादह तनख्वाह तो नहीं मिलेगी ना ! पाँच सौ देंगे और हज़ार पर दस्तखत करवाएंगे ! अभी इज्ज़त के साथ तीन चार घर में काम करती है तो दो ढाई हज़ार कमा लेती है ! बच्चा थोड़ा और बड़ा हो जायेगा तो दो तीन घर और पकड़ लेगी तो आमदनी भी और बढ़ जायेगी ! एक बार टीचर बन जायेगी तो घर में ही बैठी रह जायेगी पाँच सौ पकड़ कर ! फिर घर-घर जाकर चौका बर्तन का काम थोड़े ही करेगी ! आप उसका माथा मत घुमाओ मैडम जी !  हम लोग गरीब ज़रूर हैं लेकिन मेहनत मजूरी करके अपना पेट भर लेते हैं ! यह अगर पढ़ लिख गयी तो मेहनत मजूरी का काम नहीं कर पायेगी और फिर इसका और इसके बच्चे का पेट कौन पालेगा ! हमारे यहाँ जितने मुँह होते हैं उतने ही हाथ चाहिये होते हैं कमाने के लिये ! एक की कमाई से घर नहीं चलता !
रमा की सास बड़बड़ाती हुई किचिन में चली गयी ! मैं इस सारे तमाशे की मूक दर्शक बनी हुई थी और सोच रही थी इस अनपढ़ औरत की बातों में तर्क हो या कुतर्क लेकिन एक सच्चाई ज़रूर है ! प्राइवेट स्कूलों में आजकल जितनी तनख्वाह टीचर्स को दी जाती है उससे कहीं अधिक तो ये झाडू पोंछा और बर्तन माँजने वाली बाइयाँ कमा लेती हैं और वह भी मात्र चंद घंटों में जबकि टीचर्स कई घण्टे स्कूल में ड्यूटी देती हैं, उसके बाद घर पर भी उन्हें स्कूल का ढेरों काम करना पड़ता है ! कभी कॉपियाँ जाँचनी हैं तो कभी पेपर सेट करने हैं लेकिन उन्हें उनकी मेहनत के अनुरूप तनख्वाह नहीं दी जाती ! सबको तो सरकारी नौकरी नहीं मिल सकती ना ! तभी मुझे यह अहसास हुआ कि ट्रक पर लिखा हुआ शेर – पढ़ी लिखी लड़की, खेत की न घर की ज़रूर किसी भुक्तभोगी दिलजले ने ही लिखा होगा !

साधना वैद