आने वाला रविवार मातृ दिवस के रूप में मनाया जाने वाला है ! माँ की याद, उनके प्रति अपनी श्रद्धा या समर्पण की भावना क्या किसी दिवस विशेष के लिये सुरक्षित रखी जा सकती है ! यह तो उस प्राण वायु के समान है जो जीने के लिये अनिवार्य है और जो हमें हमारी हर साँस और हृदय के हर स्पंदन के साथ अपने ज़िंदा होने का अहसास कराती है ! हमें जीने के लिये प्रेरित करती है ! इसलिए माँ के नाम यह पैगाम आज ही भेज रही हूँ !
वह
तुम्हीं हो सकती थीं माँ
जो
बाबूजी की लाई
हर
नयी साड़ी का उद्घाटन
मुझसे
कराने के लिये
महीनों
मेरे मायके आने का
इंतज़ार
किया करती थीं ,
कभी
किसी नयी साड़ी को
पहले
खुद नहीं पहना !
वह
तुम्हीं हो सकती थीं माँ
जो
हर सुबह नये जोश,
नये
उत्साह से
रसोई
में आसन लगाती थीं
और
मेरी पसंद के पकवान बना कर
मुझे
खिलाने के लिये घंटों
चूल्हे
अँगीठी पर कढ़ाई करछुल से
जूझती
रहती थीं !
मायके
से मेरे लौटने का
समय
समाप्त होने को आ जाता था
लेकिन
पकवानों की तुम्हारी लंबी सूची
कभी
खत्म ही होने को नहीं आती थी !
वह
तुम्हीं हो सकती थीं माँ
मेरा
ज़रा सा उतरा चेहरा देख
सिरहाने
बैठ प्यार से मेरे माथे पर
अपने
आँचल से हवा करती रहती थीं
और
देर रात में सबकी नज़र बचा कर
चुपके
से ढेर सारा राई नोन साबित मिर्चें
मेरे
सिर से पाँव तक कई बार फेर
नज़र
उतारने का टोटका
किया
करती थीं !
वह
तुम्हीं हो सकती थीं माँ
जो
‘जी अच्छा नहीं है’ का
झूठा
बहाना बना अपने हिस्से की
सारी
मेवा मेरे लिये बचा कर
रख
दिया करती थीं
और
कसम दे देकर मुझे
ज़बरदस्ती
खिला दिया करती थीं !
सालों
बीत गये माँ
अब
कोई देखने वाला नहीं है
मैंने
नयी साड़ी पहनी है या पुरानी ,
मैंने
कुछ खाया भी है या नहीं ,
मेरा
चेहरा उदास या उतरा क्यूँ है ,
जी
भर आता है तो
खुद
ही रो लेती हूँ
और
खुद ही अपने आँसू पोंछ
अपनी
आँखें सुखा भी लेती हूँ
क्योंकि
आज मेरे पास
उस
अलौकिक प्यार से अभिसिंचित
तुम्हारी
ममता के आँचल की
छाँव नहीं है माँ
इस
निर्मम बीहड़ जन अरण्य में
इतने
सारे ‘अपनों’ के बीच
होते
हुए भी
मैं
नितांत अकेली हूँ !
साधना
वैद