दुर्गा पूजा के पावन पर्व पर सम्पूर्ण नारी शक्ति को मेरी यह कविता समर्पित है।
तुम क्या जानो !
रसोई से बैठक तक
घर से स्कूल तक
रामायण से अखबार तक
मैंने कितनी आलोचनाओं का ज़हर पिया है
तुम क्या जानो!
करछुल से कलम तक
बुहारी से ब्रश तक
दहलीज से दफ्तर तक
मैंने कितने तपते रेगिस्तानों को पार किया है
तुम क्या जानो!
मेंहदी के बूटों से मकानों के नक्शों तक
रोटी पर घूमते बेलन से कम्प्यूटर के बटन तक
बच्चों के गड़ूलों से हवाई जहाज की कॉकपिट तक
मैंने कितनी चुनौतियों का सामना किया है
तुम क्या जानो!
जच्चा सोहर से जाज़ तक
बन्ना बन्नी से पॉप तक
कत्थक से रॉक तक
मैंने कितनी वर्जनाओं के थपेड़ों को झेला है
तुम क्या जानो!
सड़ी गली परम्पराओं को तोड़ने के लिये
बेजान रस्मों को उखाड़ फेंकने के लिये
निषेधाज्ञा में तनी रूढ़ियों की उंगली मरोड़ने के लिये
मैंने कितने सुलगते ज्वालामुखियों की तपिश को बर्दाश्त किया है
तुम क्या जानो!
आज चुनौतियों की उस आँच में तप कर
प्रतियोगिताओं की कसौटी पर घिस कर निखर कर
कंचन सी, कुन्दन सी अपरूप दपदपाती मैं खड़ी हूँ तुम्हारे सामने
अजेय, अपराजेय, दिग्विजयी
मुझे इस रूप में भी तुम जान लो
पहचान लो!
साधना वैद
बहुत ही मार्मिक और हृदय को छूने वाली कविता है।नारी-विमर्श के सरोकार कितनी खूबी से आ पाए हैं अनजाने, अनचाहे दिल की गहराइयों से।
ReplyDeleteबधाई !
आपकी किसी नयी -पुरानी पोस्ट की हल चल कल 16-- 11 - 2011 को यहाँ भी है
ReplyDelete...नयी पुरानी हलचल में आज ...संभावनाओं के बीज
साधना जी ! मेरे पास शब्द नहीं हैं आपकी इस अभिव्यक्ति पर कुछ कहने के लिए. आभार संगीता जी कि हलचल का यहाँ तक पहुँचाने के लिए.
ReplyDeleteकरछुल से कलम तक
बुहारी से ब्रश तक
दहलीज से दफ्तर तक
मैंने कितने तपते रेगिस्तानों को पार किया है
तुम क्या जानो!
आह ...एक एक पंक्ति में जैसे पूरा नारी का अंतर्मन घोल दिया आपने.
बहुत सुन्दर अंतर्स्पर्शी रचना....
ReplyDelete.
सादर बधाई
संघर्ष का पूरा अध्याय और उसके बाद विजयी इक्छा शक्ति का कथन प्रभावित करता है!
ReplyDeleteबहुत भाव पूर्ण अभिव्यक्ति |
ReplyDeleteआशा