न अब वैसा सावन, न बारिश की बूँदें,
न अब वैसे झूले, जो आकाश छू लें !
न झूले की पींगें, न मीठी मल्हारें,
न कजरी की तानें, न भीगी फुहारें !
न सखियों का जमघट, न मेंहदी के बूटे,
न चूड़ी की छनछन, न चुनरी के गोटे !
न सलमा न मोती, न रेशम के धागे ,
न बहनों की बहसें, रहूँ सबसे आगे !
न चौके में अम्माँ की सौंधी रसोई,
न घेवर न लस्सी, जो घर की बिलोई !
हैं बाज़ार में इक से इक मँहगी राखी,
है मिलता सभी कुछ, नहीं कुछ भी बाकी !
है व्यापार सबमें, सभी कुछ है नकली ,
न मन में मुरव्वत, न है प्यार असली !
मुझे याद आते हैं वो दिन पुराने,
भरे सादगी से मगर थे सुहाने !
निकलती हैं दिल से दुआएँ हमारे
रहें सुख से भैया जहाँ हों हमारे !
साधना वैद
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