बनारस का साड़ी उद्योग और इस उद्योग से
सम्बंधित बुनकरों की बदहाली के समाचार लंबे समय से मन को व्यथित और चिंतित करते आ
रहे हैं ! सब लोग एक ही बात कहते हैं कि सरकार इस समस्या के हल के लिये कुछ नहीं
करती और बुनकरों के लिये तथा इस पारंपरिक कला को जिलाए रखने के लिये कुछ किया जाना
चाहिए !
कहने का तात्पर्य यह है कि हर चीज़ का एक समय
होता है ! बनारसी साड़ियों का भी एक समय था ! उस समय उनके बनाने वाले प्रसन्न थे
क्योंकि साड़ियों की बिक्री अच्छी होती थी ! समाज का मध्यम वर्ग भी शौक के साथ इन
साड़ियों को खरीदता था और सहेजता था ! साड़ियाँ उन दिनों फैशन में थीं ! लिहाजा
बनारसी साड़ियों का बाज़ार बुलंदी पर था ! लेकिन शनैः शनैः अन्य वस्तुओं की तरह साड़ियों
का फैशन भी लुप्त हो गया ! साड़ियों का स्थान सलवार सूट ने लिया, सलवार सूट का
स्थान जींस टॉप ने लिया और अब तो स्कर्ट, फ्रॉक, गाउन और अन्य कई परिधान प्रचलन
में हैं ! शादी विवाह के अवसर पर भी दुल्हनें साड़ी के स्थान पर लहँगा पहनना अधिक
पसंद करती हैं ! आधुनिक फैशन की दौड़ में पाश्चात्य परिधानों का वर्चस्व बढ़ गया है
और उसका प्रभाव आम जनों की वेश भूषा पर भी पड़ा है जिन्होंने साड़ियों को पीछे धकेल
दिया है ! लिहाजा इन कीमती बनारसी साड़ियों को बनाने वाले कारीगर आज ग़रीबी की मार
झेल रहे हैं ! आम जनता द्वारा इन साड़ियों के ना खरीदने का एक बहुत बड़ा कारण इनका
महँगा होना भी है ! इसीलिये अधिकांश महिलायें जो आज भी साड़ियाँ पहनती हैं विकल्प के
तौर पर कम्प्यूटर द्वारा डिजाइन की गयी पावरलूम पर बनी सिंथेटिक रेशम की साड़ियाँ
खरीदना अधिक पसंद करती हैं जो हथकरघे पर बुनी हुई प्योर सिल्क की बनारसी साड़ियों की
तुलना में काफी सस्ती भी होती हैं और मज़बूत भी ! परम्परा निर्वहन के तौर पर बनारसी
साड़ियों की थोड़ी बहुत खरीद इन दिनों विवाह शादियों में ही हो रही है ! लेकिन वह भी
कब तक ? बहू बेटियाँ साड़ियाँ पहनना तेज़ी से छोड़ती जा रही हैं ! आस पास देखें तो आजकल
सीनियर सिटीज़न ( ‘बुज़ुर्ग’ कहने की जगह यह संबोधन बेहतर लगता है ) महिलाओं
को ही साड़ी का कुछ उपयोग करते हुए देखा जा सकता है और अब तो उनमें से भी अधिकाँश
सूट में ही अधिक सहज महसूस करने लगी हैं !
खैर चिंता बनारसी साड़ी की नहीं उनके बनाने वाले हुनरमंद बुनकरों की दुर्दशा की होनी चाहिए ! कहीं हम उन्हें कला की रक्षा करने के नाम पर बलि का बकरा तो नहीं बना रहे हैं ? क्यों उनको खोखले राष्ट्रीय और प्रांतीय सम्मान दे देकर और इस कला के संरक्षण के लिये ‘कुछ करेंगे’ ऐसे झूठे आश्वासन दे देकर उनका जीवन खराब कर रहे हैं ? समझदार हैं उनके वे बच्चे जो हवा का रुख देख कर दूसरे काम काज की ओर कदम बढ़ाने लगे हैं और किसी अच्छे व आशावान भविष्य के लिये प्रयास कर रहे हैं ! आज साड़ी के उद्योग में तो प्रतिदिन मुश्किल से १५० – २०० रुपये तक की कमाई ही हो पाती है जो एक बोझा ढोने वाले मजदूर की प्रतिदिन की आय से भी कम हैं ! बाल मजदूर एवं महिलाओं को तो इस उद्योग में प्रतिदिन १०० रुपये भी नहीं मिल पाते !
क्या यह सही है कि हम भारत की प्राचीन एवं
गौरवशाली परम्परा और कला को बचाए रखने के नाम पर इन भोले भाले गरीब कारीगरों को भुलावे
में डाल इसी उद्योग में बने रहने के लिये मजबूर करते रहें जिसका कोई भविष्य नहीं
बचा है ? अनेक ऐसी कलाएं जो कभी बहुत प्रसिद्ध और लोकप्रिय थीं बदलाव की लहर में
लुप्त होती रही हैं और इसे रोका नहीं जा सकता क्योंकि परिवर्तन प्रकृति का नियम है
! नया आएगा और पुराना जाएगा !
ज़रा इन मजबूर कारीगरों के चेहरों को देखिये !
इनके घिसे पिटे जर्जर करघों को देखिये ! इनके परिवेश और घर बार को देखिये और काम
करने की इनकी तकनीक को देखिये जिसमें संत कबीर के ज़माने से अब तक शायद ही कुछ
बदलाव आया हो ! इन पर रहम करिये और दूसरा काम खोजने में इनकी सहायता करिये ! झूठे
दिलासों से इनका कुछ भला होने वाला नहीं है !
साधना वैद
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