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Thursday, September 24, 2015

शुकराना



तुम क्या गये
भावनाओं की रेशमी नमी
जीवन की कड़ी धूप में
भाप बन कर उड़ गयी !    
स्नेह के खाद पानी के अभाव में
कल्पना के कुसुमों ने
खिलना बंद कर दिया !
पलकों के बराज में निरुद्ध झील
सहसा ही सूख कर
रेतीले मैदान में तब्दील हो गयी !
प्रेम आल्हादित हृदय के
उत्कंठा से छलछलाते गीत
कंठ में ही घुट कर रह गये !
हवाएं खामोश हो गयीं,
पेड़ पौधे गुमसुम से
निस्पंद हो गये,
खुशबुएँ सहम कर कहीं दुबक गयीं,
आसमान के थाल को खाली कर
रात ने सारे चमकते चाँद सितारे
अपनी गठरी में समेट कर
कहीं छिपा दिये !
जीवन में छाए इस अँधेरे में
भटकते हुए महसूस करती हूँ कि  
अब कोई उत्साह नहीं, विश्वास नहीं
उम्मीद नहीं, इंतज़ार नहीं
आहट नहीं, दस्तक नहीं
आस नहीं, आवाज़ नहीं,
यहाँ तक कि
नीरव रात के सन्नाटों में कहीं
सूखे पत्तों की सरसराहट भी नहीं !
अपने निर्जन, निसंग, नीरव एकांत में
बस एक अकेली मैं हूँ और
मेरे साथ है मेरा आइना
जिसमें मैं गिनती रहती हूँ
अपने चहरे पर बढ़ती हुई
हर रोज़ नई झुर्रियों को !
उम्र के इस मुकाम पर आकर
शायद एक यही काम
बाकी रह गया है
मेरे करने के लिये !
और इसके लिये मुझे तुम्हारा
आभार मानना भी तो ज़रूरी है !
तो मेरा यह शुकराना
तुम्हें क़ुबूल तो है ना ?

साधना वैद 
  
चित्र  - गूगल से साभार

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