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Sunday, November 26, 2017

अनमना मन




अंश मेरे,
हर प्रखर मौसम की
निर्मम मार से
जिनको बचाया
फड़फड़ा कर पंख
उड़ कर दूर जाने को
स्वयं आतुर हुए-से,
मोह के सतरंग धागे
थाम रखा था
जतन से जिनको मैंने
उँगलियों से छूट कर
खुलते हुए-से !
रिक्त है मन
रिक्त मधुबन 
रिक्त है घर
रिक्त जीवन !
घट चली है एक रुत 
फूलों भरी-सी
खुशबुओं से बहलना
अब आ गया है,
बंद कर दो गीत सब
सुख से भरे अब
हमको फिर से
मौन रहना
भा गया है !
फिर वही पतझड़ का मौसम
फिर वही वीरान मंज़र
दर्द के इस गाँव का
हर ठौर पहचाना हुआ-सा
हैं सुपरिचित रास्ते सब 
और सब खामोश गलियाँ
साथ मेरे चल रहा है दुःख  
हमसाया हुआ-सा !

साधना वैद







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