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Wednesday, June 12, 2019

जीवन चक्र


शहर की सुन्दर सी कॉलोनी में मलिक साहेब की बड़ी सी कोठी थी और उस कोठी में अमलतास का एक बहुत बड़ा हरा भरा और सुन्दर सा पेड़ था ! उस पेड़ पर एक प्यारी सी बया रहती थी ! बया रानी दिन भर मेहनत करती ! अमलतास के पेड़ पर अपना खूबसूरत घरौंदा बनाने के लिये अनगिनत घास पत्ते और तिनकों में से चुन-चुन कर सबसे बेहतरीन तिनके वह बटोर कर लाती ! अंदर से उसे इतना मुलायम, चिकना और आरामदेह बना देती कि उसके सुकुमार अण्डों को कोई नुक्सान न पहुँचे और उसके नन्हे-नन्हे चूज़े एकदम सुरक्षित माहौल में इस संसार में अपनी आँखें खोल सकें ! कड़ी मेहनत से बनाया हुआ उसका घोंसला लगभग तैयार हो चुका था ! आज वह आख़िरी चंद तिनके अपनी चोंच में दबा कर लाई थी कि अपने घोंसले को अंतिम रूप दे सके ! संध्या के समय श्रांत क्लांत जब वह अमलतास तक आई तो उसके दुःख का कोई पारावार न था ! दुष्ट बन्दर ने उसका मेहनत से बनाया हुआ खूबसूरत घोंसला तिनका-तिनका बिखेर कर ज़मीन पर फेंक दिया था ! 

सारी रात बया दुःख में डूबी रही लेकिन सुबह होते-होते उसने किसी तरह सब्र कर लिया ! जीवन गीत गुनगुनाते हुए अगले दिन से नीड़ के निर्माण के लिये तिनके जोड़ने का बया का सिलसिला एक बार फिर नये सिरे से आरम्भ हुआ ! कमर कस कर बया ने फिर से तिनके बटोरना शुरू किये और एक बार फिर कड़ी मेहनत कर अपना घोंसला दोबारा तैयार कर लिया ! लेकिन कहते हैं ना – ‘अपने मन कछु और है कर्ता के कछु और !’ इस बार घर के मालिक मलिक साहेब ने पेड़ को सुन्दर आकार देने के लिये कुछ डालियाँ कटवा दीं और उन डालियों के साथ बया का घोंसला भी कूड़े के ढेर पर पहुँच गया ! 

इस बार बया ने अमलतास के सघन हिस्से में अपना घोंसला बनाने का निश्चय किया ताकि उसे कोई देख न पाए और वह अपने अंडे उस घोंसले में निश्चिन्त होकर दे सके ! रोज़ चहचहाते गीत गुनगुनाते वह फिर से नये जोश के साथ घोंसला बनाने में जुट गयी ! ईश्वर का धन्यवाद कि इस बार उसका घोंसला भी ठीक से बन गया और उसके अंडे भी उसमें सुरक्षित बच गये ! अब बया को नयी चुनौती का सामना करना था ! उसे अपने चूजों की रक्षा कौओं, बिल्ली, बन्दर और चील से करनी थी ! उसे रोज़ उनके लिये दाना खोज कर लाना होता था और उन्हें सबकी नज़र से बचा कर धीरे-धीरे उड़ना भी सिखाना होता था ! बया दिन भर मेहनत करती ! कभी बच्चों की चोंच में दाना डाल उन्हें खाना खिलाती ! कभी दुष्ट कौए और चील को घोंसले के करीब आते देख खदेड़ कर भगाती तो कभी बन्दर और बिल्ली से पंगा लेकर अपने बच्चों की हिफाज़त करती ! लेकिन सुबह शाम बहुत तल्लीन होकर वह अपना जीवन गीत ज़रूर गाती और अपने बच्चों को भी खूब दुलारती !

बच्चे अब बड़े हो गये थे ! बया रानी रोज़ की तरह अपने बच्चों के लिये दाना लाने गयी थी ! शाम को जब वह अपने घर लौटी तो घोंसला खाली था ! उसके सारे बच्चे उड़ गये थे अपने हिस्से का आसमान ढूँढने के लिये ! बया हतप्रभ थी, उदास थी, दुखी थी और बिलकुल अकेली थी ! आशंका थी इस बार बया यह सदमा झेल नहीं पायेगी लेकिन अगली सुबह उसके घरौंदे से रोज़ की तरह फिर से उसी मीठी आवाज़ में जीवन गीत की मधुर ध्वनि सुनाई दे रही थी ! 

जितनी सहजता से निस्पृह होकर ये पंछी अपने इस जीवन चक्र को आत्मसात कर लेते हैं हम मानव क्यों नहीं कर पाते ?


साधना वैद