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Sunday, October 21, 2012

नारी विमर्श की व्यथा कथा





जिसे अपने वजूद को संसार में लाने के लिये जीने से पहले ही हर साँस के लिये संघर्ष करना पड़े ! जिसे बचपन अपने माता पिता और बड़े भाइयों के कठोर अनुशासन और प्रतिबंधों में और विवाह के बाद ससुराल में पति की अर्धांगिनी या सहचरी बन कर नहीं वरन सारे परिवार की दासी और सेविका बन कर जीने के लिये विवश होना पड़े वो भी इस हद तक कि विधवा हो जाने पर उसे जीते जी पति के साथ उसकी चिता के हवाले कर परलोक तक की यात्रा में उसकी अनुगामिनी बनने के लिये मजबूर कर दिया जाये उस नारी के विमर्श की कथा व्यथा मैं क्या सुनाऊँ ! वह ज़िंदा ज़रूर है, साँस भी ले रही है लेकिन हर पल ना जाने कितनी मौतें मरती है ! ऐसी बातें जब लोग सुनते हैं तो कहते हैं ये सब तो बढ़ा चढ़ा कर कही गयी बातें हैं ! अब तो बहुत सुधार आ गया है ! जी हाँ सुधार और बदलाव के नाम पर इतना परिवर्तन ज़रूर आया है कि विधवा हो जाने पर पहले स्त्री को ज़बर्दस्ती पति के साथ जीते जी ज़िंदा जला कर उसे सती घोषित कर दिया जाता था अब उसे धर्म कर्म के नाम पर वृन्दावन, काशी, बनारस के विधवा आश्रमों में नर्क से भी बदतर ज़िंदगी जीने के लिये घर से निष्कासित कर दिया जाता है ! जिनके जीवन की दुखद गाथा से अमेरिका की मशहूर टॉक शो होस्ट ओपरा विनफ्रे इतनी द्रवित हुईं कि वे सारी दुनिया को उसे सुनाने के लिये अपनी डायरी में नोट कर अमेरिका तक ले गयी हैं !   
जीवनपर्यंत नारी को संघर्ष ही तो करना पड़ता है ! सबसे पहले तो जन्म लेने के लिये संघर्ष ! अगर समझदार दर्दमंद और दयालु माता पिता मिल गये तो इस संसार में आँखें खोलने का सौभाग्य उसे मिल जाएगा वरना जिस कोख को भगवान ने उसे जीवन देने के लिये चुना वही कोख उसके लिये कब्रगाह भी बन सकती है ! जन्म ले भी लिया तो लड़की होने की वजह से घर में बचपन से ही भेदभाव की शिकार बनती है ! बेटा ‘कुलदीपक’ जो होता है बेटी तो ‘पराया धन’ होती है, एक ‘बोझ की गठरी’ ! मध्यम वर्ग में, जहाँ परिवार में धन की आपूर्ति सीमित होती है, बेटों की तुलना में बेटियों को हमेशा दोयम दर्ज़े की ज़िंदगी जीनी पड़ती है ! फल-दूध, मेवा-मिठाई, शौक-फैशन, खेल-खिलौने, शिक्षा-दीक्षा सभी पर पहला अधिकार परिवार के ‘कुलदीपकों’ का होता है ! बचा खुचा बेटियों के नसीब में आता है ! शहरों में पले बढ़े और आधुनिकता व पाश्चात्य सभ्यता का रंगीन चश्मा सदा आँखों पर चढ़ाये रखने वाले चंद पढ़े लिखे, संपन्न और शिक्षित लोगों के गले के नीचे यह बात नहीं उतरती है कि लड़कियों के साथ ऐसा भेदभाव होता है लेकिन जो भुक्त भोगी हैं ज़रा कभी उनकी आपबीती भी तो सुनिये ! भारत के गाँवों में आज भी यही मानसिकता दृढ़ता से कायम है और यह भी उतना ही सच है कि भारत की ८०% जनसंख्या गाँवों में ही रहती है ! आज भी वहाँ स्त्री का दर्ज़ा घर में नौकरानी से बड़ा नहीं है ! छोटी-छोटी गलतियों पर उसे रूई की तरह धुन दिया जाता है, मार पीट कर घर से निकाल दिया जाता है, घर वालों की फरमाइशों को पूरा करने के लिये उससे उम्मीद की जाती है कि वह अपने मायके वालों पर दबाव बनाये और समय-समय पर ससुराल वालों की ज़रूरत के अनुसार उनसे पैसा बटोर कर लाती रहे ! ऐसा ना कर पाने पर उसके शरीर पर मिट्टी का तेल डाल उसे ज़िंदा आग के हवाले कर दिया जाता है ! क्या प्रतिदिन समाचार पत्र ऐसी ख़बरों से रंगे नहीं मिलते ? आज भी उससे इस तरह के सवाल पूछे जाते हैं.......
हाय तुम औरत होकर अखबार पढ़ती हो ?
हाय तुम औरत होकर ताश खेलती हो ?
हाय तुम औरत होकर मर्दों की तरह पतलून पहनती हो ?
क्या करोगी इतना पढ़ लिख कर ? ससुराल जाकर सम्हालना तो चौका चूल्हा ही है !
आज भी यहाँ स्त्री को प्रेम करने का अधिकार नहीं है ! अंतर्जातीय सम्बन्ध जोड़ने के दंडस्वरूप उसे सरे आम मौत के घाट उतार दिया जाता है और सारा समाज मूक तमाशबीन बन इस अन्याय को घटित होते देखता रहता है !  
शहरों में जिन स्त्रियों ने ये बाधाएं पार कर ली हैं वे सडकों पर, मेट्रोज में ऑफिस में अलग तरह की मानसिक हिंसा और प्रताड़ना का शिकार हो रही हैं ! उनकी उपलब्धियों को नकारा जाता है ! उनकी तरक्की को गलत तरीके से हासिल की गयी सफलता के रूप में सिद्ध करने में कोई कसर नहीं छोड़ी जाती ! उनके चरित्र पर उंगलियाँ उठाई जाती हैं ! उन्हें उपभोग की वस्तु मान हेय दृष्टि से देखा जाता है और आये दिन उन्हें लोगों की काम वासना और लोलुपता का शिकार होना पड़ता है ! मैंने कई कुँवारी लड़कियों और कम उम्र की विधवा महिलाओं को सिन्दूर लगा कर नौकरी के लिये जाते हुए देखा है ! गले में मंगलसूत्र और माँग में भरा हुआ सिन्दूर आज भी स्त्री के लिये रक्षा कवच का प्रतीक बने हुए हैं ! सोचिये नारी कहाँ स्वतंत्र और आत्म निर्भर हुई है !  
नारी इन सभी विमर्शों को सदियों से झेलती आ रही है और सभी प्रतिकूल परिस्थितियों में कठिन संघर्ष करते हुए वह खामोशी से स्वयं को सिद्ध करने में लगी हुई है लेकिन बचे हुए लोग भी कब उसकी उपलब्धियों का निष्पक्ष होकर आकलन कर पायेंगे यह देखना बाकी है ! आज वर्षों पहले इसी विषय पर लिखी अपनी एक रचना यहाँ उद्धृत कर रही हूँ ! आप भी देखिये ! शायद आपको भी पसंद आये !

तुम क्या जानो

रसोई से बैठक तक ,
घर से स्कूल तक ,
रामायण से अखबार तक
मैने कितनी आलोचनाओं का ज़हर पिया है
तुम क्या जानो !

करछुल से कलम तक ,
बुहारी से ब्रश तक ,
दहलीज से दफ्तर तक
मैंने कितने तपते रेगिस्तानों को पार किया है
तुम क्या जानो !

मेंहदी के बूटों से मकानों के नक्शों तक ,
रोटी पर घूमते बेलन से कम्प्यूटर के बटन तक , 
बच्चों के गड़ूलों से हवाई जहाज़ की कॉकपिट तक
मैंने कितनी चुनौतियों का सामना किया है
तुम क्या जानो !


जच्चा सोहर से जाज़ तक ,
बन्ना बन्नी से पॉप तक ,
कत्थक से रॉक तक
मैंने कितनी वर्जनाओं के थपेड़ों को झेला है
तुम क्या जानो !

सड़ी गली परम्पराओं को तोड़ने के लिये ,
बेजान रस्मों को उखाड़ फेंकने के लिये ,
निषेधाज्ञा में तनी रूढ़ियों की उँगली मरोड़ने के लिये
मैने कितने सुलगते ज्वालामुखियों की तपिश को बर्दाश्त किया है
तुम क्या जानो !

आज चुनौतियों की उस आँच में तप कर
प्रतियोगिताओं की कसौटी पर घिस कर, निखर कर
कंचन सी कुंदन सी अपरूप दपदपाती
मैं खड़ी हूँ तुम्हारे सामने
अजेय, अपराजेय, दिग्विजयी !
मुझे इस रूप में भी तुम जान लो
पहचान लो !

मुझे पूरी आशा है कि वह सुबह भी कभी तो आयेगी जब नारी विमर्श की इस करुण कथा का सुखान्त आयेगा और वह अपने लिये एक अनुकूल वातावरण का निर्माण कर पायेगी, घर परिवार में, समाज में और अपने कार्य स्थल पर अपने लिये एक सम्मानपूर्ण स्थान पर साधिकार बैठने का दुर्लभ स्वप्न साकार कर पायेगी और सारे संसार को अपने विजयी विराट स्वरुप के दर्शन करा चमत्कृत कर देगी ! यह भारतीय समाज की आम स्त्री का प्रतिबिम्ब है ! इनमें कई सौभाग्यशाली स्त्रियाँ ऐसी भी होंगी जिन्हें अपवाद की श्रेणी में रखा जा सकता है यह कथा उनकी नहीं है ! क्षमा याचना के साथ निवेदन है कि किसीको ठेस पहुँचाना इस आलेख का उद्देश्य नहीं है ! 


साधना वैद

20 comments :

  1. सच के निकट अपवाद होते हैं , पर इससे सत्य का आंसुओं से सराबोर न्याय की गुहार लगता चेहरा नहीं बदलता . जिस सत्य की अग्नि में कई घरों की बेटियाँ रुखसत हो गयीं,कई गर्भ में ही खत्म हो गईं ,.....कई देते देते थक गई और कई सन्नाटे में तब्दील हो गई . चलती फिरती .... जिंदा लाश से किसी को क्या ठेस लगेगी !

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  2. अपने वजूद को संसार में लाने के लिये सदियों से प्रयत्नशील रहने वाली ने हर क्षेत्र में अपनी क़ाबलियत सिद्ध कर दिखाई है फिर भी आज कोख में मार दी जाती हैं, बेटों से कम आंकी जाती हैं. कविता बहुत अच्छी लगी ... आभार

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  3. स्त्रियों को देवी, ममतामयी, धरती कहकहकर यह मानसिकता भर दी जाती है कि उसे सदा सहनशील ही बने रहना है
    सहनशक्ति का पर्याय है धरती
    पर क्या
    अनवरत धूप से
    दरारें नहीं फटतीं
    निर्बाध बारिश से
    उत्प्लावित नहीं होती
    अंतस की अग्नि
    ज्वालामुखी नहीं बनाती

    समाज विकसित सोच का कितना भी दम्भ भरे...पर नारी के बारे में उसके विचार संकीर्ण ही रहते हैं...अपवाद हर जगह हैं|

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  4. मुझे पूरी आशा है कि वह सुबह भी कभी तो आयेगी जब नारी विमर्श की इस करुण कथा का सुखान्त आयेगा और वह अपने लिये एक अनुकूल वातावरण का निर्माण कर पायेगी,...........isi umeed par hum jite hae...shayad kabhi to wo subah ayegi

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  5. आदरणीया मौसीजी,सादर नमन ,
    सर्वप्रथम आपको विजयादशमी की हार्दिक शुभकामनाएँ |
    आपका आलेख पढकर इकबाल की पंक्तियाँ याद आ गई कि;
    "कुछ बात है कि हस्ती मिटती नहीं हमारी ,सदियों से रहा है दुश्मन दौरे-जहाँ हमारा"|
    सलाम आपकी प्रखर लेखनी को |

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  6. lagta to hai ki nari ka bhi suryoday hone ko hai...lekin us suryoday ke hone tak kitni raate royengi, kitni kaali hongi, kitni shammayen jal kar bhasm ho jayengi, kitni jugnu ban kar prakash dene ke liye tilmilayengi..n jane is pau ke footne tak kitni..ktini rate siskiyon me dam ghont jayengi.

    bahut sunder lekh aur kavita.

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  7. बिल्कुल सटीक आकलन किया है आपने ………सार्थक विमर्श

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  8. "मुझे पूरी आशा है कि वह सुबह भी कभी तो आयेगी जब नारी विमर्श की इस करुण कथा का सुखान्त आयेगा और वह अपने लिये एक अनुकूल वातावरण का निर्माण कर पायेगी".....
    आमीन...!!

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  9. रश्मि जी से सहमत ! ये इतिहास न कभी बदला है और न बदल पायेगा। हाँ नारी विमर्श से कुछ प्रतिशत सुधर जरूर आ रहा है लेकिन वो कब जब उसने अपने हक के लिए खुद लड़ना सीख लिया है और वह उठ खड़ी हुई है। जो भुक्तभोगी है वे अपने आने वाली बच्चियों के प्रति सजग हो उठी हैं क्योंकि अब वे खुद को समर्थ बनाने में सफल हो रही हैं और वैसे ही अपनी बेटियों के प्रति सजग हैं।

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  10. नारी यदि चाह ले तो परस्थितियों में काफी सुधार हो सकता है,,,,,

    दुर्गा अष्टमी की आप सभी को हार्दिक शुभकामनायें *

    RECENT POST : ऐ माता तेरे बेटे हम

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  11. बहुत बढ़िया रचना है दोस्त आपकी

    वहीँ यादें तुम्हारी,
    वहीँ आँखें मेरी नम,
    वहीँ बातें तुम्हारी,
    वहीँ पलछिन हैं हरदम,

    अन्तर मन की पूरी आहट देती रचना .बहुत सुन्दर .


    हे माँ!
    विहिंसक वृत्तियों पर वज्रपात करो!
    और सब पर शुभ शक्तिपात करो!

    हे माँ!
    अपने वैभव-विलास युत वक्ष से
    अजात प्रकृति-शिशुओं को दीर्घजात करो !
    और सब पर शुभ शक्तिपात करो!

    पूरी रचना में एक आनुप्रासिक ओज और छटा ,माँ का आवाहन है काल रात्रि के विनाश का .सब पर शक्ति पात का .एक सात्विक उल्लास बुनती है रचना .
    आसमान से बातें करता,
    वह प्राचीन क़िला।
    हमको मरे हुए कछुए-सा,
    औंधा पड़ा मिला।

    इन पुण्य आत्माओं की अप्रतिम रचनाएं पढ़वा संजोके आप एक बड़ा काम कर रहें हैं .

    मोहतरमा चिठ्ठियाँ स्पैम बोक्स गटकने लगा है .

    Virendra Kumar Sharma said...
    साहित्य भाव जगत की रागात्मक वृत्ति है .गूंगे का गुड़ है , इसके निष्पादन के लिए किसी तर्क पंडित की ज़रुरत नहीं
    Mon Oct 22, 12:16:00 AM 2012
    बेहद सशक्त रचना .

    जच्चा सोहर से जाज़ तक ,
    बन्ना बन्नी से पॉप तक ,
    कत्थक से रॉक तक
    मैंने कितनी वर्जनाओं के थपेड़ों को झेला है
    तुम क्या जानो !
    बिम्ब गति और व्यंजना की ऐसी अबेहद सशक्त रचना .अन्विति बिरले ही देखने को मिलती है जैसी साधना वेद जी की इस रचना में है .हां !सुनीता
    विलियम्स और भी हैं ,आयेंगी नए कीर्तिमान बनाएंगी .जग को रस्ता दिखलाएंगी .

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  12. बेहद सशक्त रचना .

    जच्चा सोहर से जाज़ तक ,
    बन्ना बन्नी से पॉप तक ,
    कत्थक से रॉक तक
    मैंने कितनी वर्जनाओं के थपेड़ों को झेला है
    तुम क्या जानो !
    बिम्ब गति और व्यंजना की ऐसी अबेहद सशक्त रचना .अन्विति बिरले ही देखने को मिलती है जैसी साधना वेद जी की इस रचना में है .हां !सुनीता
    विलियम्स और भी हैं ,आयेंगी नए कीर्तिमान बनाएंगी .जग को रस्ता दिखलाएंगी .

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  13. आपकी इस उत्कृष्ट प्रविष्टि की चर्चा मंगलवार २३/१०/१२ को राजेश कुमारी द्वारा चर्चा मंच पर की जायेगी आपका स्वागत है

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  14. सशक्त नारी विमर्श .... कितनी ही बाधा हो अब नारी ने आगे बढ़ाना सीख लिया है ...

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  15. वो सुबह कभी तो आएगी..और जरूर आयेगी..जब स्त्रियों कोभी बराबर का स्थान मिलेगा..

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  16. सच है भारत में वर्तमान में स्त्री समाज की दशा चिंतनीय है...

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  17. संघर्ष ही जीवन है |महिलाएं दूसरे दर्जे की नागरिक पहले भी थी और आज भी हैं और आगे भी रहेंगी |बड़ी बातें बस मंच पर ही होती हैं वास्तविकता कुछ और होती है |
    अच्छा लेख |
    आशा

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  18. सार्थक विवेचन और एक सशक्त कविता ...
    उत्कृष्ट पोस्ट

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  19. आप सभी महानुभावों की हृदय से आभारी हूँ जिन्होंने अपना कीमती समय देकर मेरे आलेख को पढ़ा और अपनी प्रतिक्रिया व्यक्त की ! इस प्रोत्साहन के लिये आप सभी का बहुत-बहुत धन्यवाद !

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