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Sunday, January 12, 2014

सन्नाटा


दर्पण के सामने खड़ी हूँ
लेकिन नहीं जानती
मुझे अपना ही प्रतिबिम्ब
क्यों नहीं दिखाई देता ,
कितने जाने अनजाने लोगों की
भीड़ है सम्मुख
लेकिन नहीं जानती
वही एक चिर परिचित चेहरा
क्यों नहीं दिखाई देता ,
कितनी सारी आवाजें हरदम
गूँजती हैं इर्द गिर्द
लेकिन नहीं जानती
खामोशी की वही एक
धीमी सी फुसफुसाहट
क्यों नहीं सुनाई देती ,
कितने सारे मंज़र
बिखरे पड़े हैं चारों ओर
लेकिन नहीं जानती
मन की तपन को जो
शांत कर दे वही एक मंज़र
क्यों नहीं दिखाई देता !
नहीं जानती  
यह हमारे ही वजूद के 
मिट जाने की वजह से है
या दुनिया की इस भीड़ में
तुम्हारे खो जाने के कारण
लेकिन यह सच है कि
ना अब दर्पण मुस्कुराता है
कि मन को शक्ति मिले
ना कोई चेहरा स्नेह विगलित  
मुस्कान से आश्वस्त करता है
कि सारी पीड़ा तिरोहित हो जाये ,
ना खामोशी की धीमी-धीमी
आवाजें सुनाई देती हैं
कि हृदय में जलतरंग बज उठे ,
ना आत्मा को तृप्त करने वाला
कोई मंज़र ही दिखाई देता है
कि मन का पतझड़ वसंत बन जाये !
अब सिर्फ सन्नाटा ही सन्नाटा है
भीतर भी और बाहर भी !

साधना वैद

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