अर्जुन की तरह
अपने लक्ष्य पर
अपने लक्ष्य पर
टकटकी लगाये बैठा हूँ मैं
लहरों पर धीरे-धीरे बहती
अपनी डगमगाती नौका पर !
पास में है खण्डित पतवार
और मन के तूणीर में
जीवन के रणक्षेत्र से बटोरे हुए
भग्न, आधे अधूरे,
बारम्बार प्रयुक्त हुए चंद तीर
और महत्वाकांक्षा की
एक टूटी-फूटी कमान !
और साथ देने को है
शाम का सिमटता धुँधलका,
अखण्ड नीरवता,
तन मन में व्याप्त थकन
और एक ऐसी विरक्ति
जो ना तो मन से
उतार कर फेंकी जा सकती है
ना ही जिससे स्वयमेव
मुक्ति मिल पाना संभव है !
नियति के इशारे पर
चल तो पड़ा हूँ
एक निर्जन निसंग यात्रा पर !
हवा के झोंकों के साथ
निर्लिप्त, निरुत्साहित,
अनिर्दिष्ट, अकारण
बहता ही जाता हूँ मैं
क्योंकि रुकने के लिये
क्योंकि रुकने के लिये
मेरे पास ना कोई कूल है
ना किसी माँ का
ममता भरा दुकूल है !
दूर क्षितिज के भाल पर
निर्धारित कर दिया है
तुमने मेरा लक्ष्य !
कहो, कहाँ निशाना साधूँ
लहरों पर आंदोलित
क्षितिज के प्रतिबिम्ब पर
या दोनों पहाड़ों के मध्य
अनंत शून्य में स्थित
क्षितिज के भाल पर ?
यह कैसी परीक्षा है देव
जहाँ जीत की कोई
संभावना ही नहीं,
जहाँ पराजय निश्चित
और अवश्यम्भावी है !
लेकिन न्याय के नाम पर
तुम्हारा यह अन्याय भी
मुझे स्वीकार है !
साधना वैद
उम्दा रचना के लिए बधाई |
ReplyDeleteहार्दिक धन्यवाद जीजी !
Deleteआपका हृदय से बहुत बहुत आभार यशोदा जी ! मैं तो सच में अपनी लिखी रचनाएं ही नहीं खोज पा रही थी ! आगरा से बाहर होने के कारण इस बार मायूस थी कि सबसे पिछड़ जाउँगी हमकदम के सफ़र में ! लेकिन आपने बचा लिया ! आपका तहे दिल से बहुत बहुत धन्यवाद सखी ! सप्रेम वन्दे ! !
ReplyDeleteबहुत सुन्दर कविता है |
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