एक बार फिर 
लौटे हैं एक और मुकाम से 
जहाँ ढूँढते रहे हम  
ज़मीं के चप्पे-चप्पे पर 
तेरे कदमों के निशाँ, 
चलते रहे नंगे पाँव 
कंकर पत्थरों से भरे 
खुरदुरे रास्तों पर 
कि शायद 
इन कंकरों की चुभन में 
हमें किसी तरह  
तेरे हमकदम हो जाने का,
झूठा ही सही, 
 बस एक
भरम भर हो जाए,
भरम भर हो जाए,
खड़े रहे देर तक
बहती नदी की
बहती नदी की
तेज धार में 
सिर्फ इसी ख्याल से 
 कि 
कभी इसी जगह 
इसी तरह खड़े होकर 
तूने भी इसी पानी का 
आचमन लिया होगा ! 
नहीं जानते 
जाने कितना पानी 
तब से अब तक 
इन किनारों को छूकर 
बह चुका होगा 
लेकिन न जाने कैसे 
तेरे ख़याल भर से 
मंदिर की सीढ़ियां 
प्राणवान हो उठती हैं,
संकरे गलियारों की दीवारों से 
अनायास ही तेरी उँगलियाँ 
हाथ थामती सी 
महसूस होने लगती हैं,
हवाओं में कहीं तेरी खुशबू सी
तैरने लगती है, 
पानी के शीतल स्पर्श से  
मन को कहीं सुकून सा 
मिलने लगता है कि  
तेरे भीगे हाथों को  
आहिस्ता से छू लिया है ! 
और फिर 
जाने किस जादू से
जाने किस जादू से
अजनबी शहर का  
हर मकान अपना सा 
लगने लगा 
और
और
हर खिड़की 
हर दरवाज़े से हमें 
तेरे झाँकने का 
गुमां होने लगा !
लेकिन  
हर जगह भीड़ में शुमार 
सैकड़ों चेहरों में बस 
तुझे ही देख लेने की 
नाकाम चाहत लिये 
एक बार फिर 
खाली हाथ  
लौट आये हैं हम,
एक बस तुझे 
ढूँढ लेने की ज़िद में  
बेनाम मंज़िलों के 
अजनबी रास्तों पर 
एक बार फिर 
कहीं खुद को 
भूल आये हैं हम !
भूल आये हैं हम !
साधना वैद 
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