क्या होगा कागज़ पर तरह-तरह
की
तस्वीरें उकेर कर ?
रेत पर खींची रेखाओं
की तरह 
एक दिन वे भी मिट ही
जाती हैं 
ज़रा कुछ देर से सही पर
मिट जाना ही उनकी भी
नियति है ! 
क्या होगा कालीदास
की तरह 
मेघों को अपना
सन्देश देकर ?
सारा सावन सूखा ही
गया और 
वे अपने कोश से
सम्वेदना के 
चार छींटे भी न बरसा
सके !
फिर उन पर निर्भरता
कैसी ? 
उनके पास इतना वक्त ही
कहाँ कि 
फ़िज़ूल की कवायद के
लिये वे
अपना समय बर्बाद
करें ! 
क्या होगा किसीको
राह दिखाने 
की गरज़ से दीपशिखा
की तरह 
खुद को मशाल बना कर, 
पिघला कर ? 
इन रास्तों पर जब
किसी को 
आना ही नहीं  
तो राहें रोशन हों या
अँधेरे में गुम 
क्या फर्क पड़ता
है ! 
अब तो चाँद सितारों
से 
उलझना छोड़ो
अब तो सुबह शाम हवाओं की 
चिरौरी करना छोड़ो
अब तो उड़ते परिंदों से 
रश्क करना छोडो 
अब तो फूलों से
पत्तों से 
बातें करना छोड़ो
अब तो नदिया के
बहते पानी को 
आँचल में बाँधना
छोड़ो  
अब तो जागी आँखों 
झूठे सपने देखना छोड़ो 
इस विशाल जन अरण्य में
जब 
अनेकों मर्मभेदी चीत्कारें
अनसुनी रह जाती हैं
तो 
तुम्हारे रुदन के मूक
स्वरों को 
कौन सुनेगा ! 
साधना वैद 
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