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Wednesday, February 7, 2018

पहाड़ी नदी



स्वर्ग से नीचे
धरा पर उतरी
पहाड़ी नदी

करने आई
उद्धार जगत का
कल्याणी नदी

बहती जाती 
अथक अहर्निश
युगों युगों से 

करती रही 
धरा अभिसिंचित 
ये सदियों से 

जीवन यह 
है अर्पित तुमको 
हे रत्नाकर 

उमड़ चली 
मिलने को तुमसे 
मेरे सागर 

सूर्य रश्मि से 
 पिघली हिमनद  
सकुचाई सी 

 हँसती गाती  
छल छल बहती 
इठलाई सी 

उथली धारा
बहती कल कल
प्रेम की धनी

उच्च चोटी से 
झर झर झरती 
झरना बनी 

नीचे आकर 
बन गयी नदिया 
मिल धारा से 

उन्मुक्त हुई
निर्बंध बह चली 
हिम कारा से

बहे वेग से 
भूमि पर आकर 
मंथर धारा 

मुग्ध हिया में 
उल्लास जगत का 
समाया सारा 

एक ही साध
हो जाऊँ समाहित
पिया अंग मैं

रंग जाऊँगी 
इक लय होकर 
पिया रंग मैं 

मेरा सागर 
मधुर या कड़वा 
मेरा आलय 

सुख या दुःख 
अमृत या हो विष
है देवालय 

चाहत बस 
पर्याय प्रणय की
मैं बन जाऊँ

मिसाल बनूँ
साजन के रंग में 
मैं रंग जाऊं 



साधना वैद     
   

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