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Tuesday, May 29, 2018

यात्रा





अभी पिछले गुरूवार को ही लगभग १४ घंटे का सफ़र तय कर मैं अपने घर पहुँची हूँ ! सुबह के सात बजे से रात के साढ़े दस तक ! इतना बोरिंग सफ़र था कि सच जानिये बिलकुल ऐसा लगा जैसे तपते रेगिस्तान में सदियाँ गुज़र रही हों और दूर दूर तक कहीं भी कोई छायादार दरख़्त दिखाई नहीं दे रहा हो ! गर्मी भी तो थी ज़बरदस्त ! 

सालों पहले जब शताब्दी और राजधानी जैसी द्रुत गति की रेलगाड़ियाँ नहीं चलती थीं तब यही फासला तय करने में पूरे बाईस घंटे लग जाते थे ! प्रवास के लिए मौसम और महीना भी यही होता था क्योंकि भारत में बच्चों के स्कूल की लम्बी छुट्टियाँ गर्मियों में ही होती हैं और उनकी मम्मियों को भी अधिक दिन तक मायके के सुख उठाने का सुअवसर इन्हीं दिनों मिलता है ! लेकिन सच जानिये उन दिनों यह सफ़र कितना मज़ेदार और ख़ुशगवार होता था कि आपको बता नहीं सकते ! एक शाम को सात बजे ट्रेन पकड़ते थे और दूसरे दिन शाम को पाँच बजे अपने मायके पहुँचते थे लेकिन हँसते खेलते बोलते बतियाते यह सफ़र कब समाप्त हो जाता था पता ही नहीं चलता था !

उन दिनों ए सी कोच हर ट्रेन में बहुत सीमित होते थे और टिकिट भी बहुत मंहगा होता था लिहाजा जनरल कोच में ही सफ़र करते थे ! लोहे के संदूक और बिस्तरबंद तो अनिवार्य रूप से साथ होते ही थे ! और सच जानिये लोहे का संदूक बड़ा काम आता था ! प्लेटफार्म पर यात्रियों के बैठने के लिए बहुत ही सीमित व्यवस्था हुआ करती थी ! अभी भी वही हाल है ! कुर्सियाँ बढ़ गयी हैं तो भीड़ भी उतनी ही बढ़ गयी है ! लोहे का संदूक साथ में होता था तो उसी पर बैठ जाया करते थे ! सामान भी सुरक्षित और थकान से भी बचे ! बिस्तरबंद साथ में होता था तो ढेरों सामान जैसे जूते चप्पल चादर तौलिये रफ कपडे सब उसीमें समा जाते थे ! सामान के अदद भी कम ! अब तो लगेज इतना नाज़ुक होता है कि हर वक्त इसी बात की चिंता रहती है कि कहीं कुली उसे दचक कर ना रख दे, कि कहीं उसकी सिलाई ना खुल जाए या फिर कहीं अन्दर रखा सामान ही ना टूट जाए ! 

पहले ठन्डे पानी के लिए साथ में एक मिलिट्री वाली केतली लेकर चला करते थे ! उस पर कम्बल वाला खाकी रंग का कपड़ा चढ़ा होता था ! डिब्बे की खिड़की की सलाखों में उसे लपेट कर बाहर हवा में लटका देते थे बिलकुल ठंडा पानी मिलता था सारे रास्ते पीने के लिए ! ख़त्म हो गया पानी तो प्लेटफार्म की प्याऊ से फिर भर लिया और अपने प्राकृतिक कूलर से फिर ठंडा कर लिया ! अब तो ढेर सारे रुपये देकर बिसलेरी की एक बोतल खरीदो जो मुश्किल से आधा घंटा भी ठंडी नहीं रहती और उसी उबले पानी को तब तक घुटकते रहो जब तक जी ना मिचला जाए !

लोहे के संदूक के बड़े फायदे होते थे ! कम्पार्टमेंट की दोनों सीटों के बीच उन्हें जमा दिया जाता था और उन पर गद्दा वगैरह बिछा कर बिलकुल डबल बेड का रूप दे दिया जाता था ! बस सारा परिवार आराम से सो कर रात गुज़ार देता ! बच्चे इस अस्थाई बिस्तर पर सो जाते ! कई बार तो सह यात्रियों के बच्चे भी उसी व्यवस्था में एकोमोडेट हो जाते ! लम्बी यात्रा होती थी दिन में नाश्ते खाने के वक्त उसीसे डाइनिंग टेबिल का काम ले लिया जाता और बाकी समय ताश, साँप सीढ़ी, लूडो के लिए वे आधार बन जाते ! अब तो इतने नाजुक और कीमती सूटकेस आने लगे हैं कि सारे वक्त लोगों का ध्यान इसी बात में लगा रहता है कि किसीने उनके लगेज पर अपने जूते चप्पल तो नहीं टिका दिए हैं कि वह गंदा हो जाए ! 

सहयात्रियों के साथ यात्रा के दौरान इतने मधुर और अन्तरंग रिश्ते कायम हो जाते कि सालों लोग उन रिश्तों को निभाने के लिए कृतसंकल्प हो जाते ! एक दिन की यात्रा में हुई दोस्ती इतनी गहरी हो जाती कि वर्षों तक उन लोगों के बीच चिठ्ठी पत्री का सिलसिला शुरू हो जाता और एक दूसरे के सुख दुःख में शरीक होना लोग अपना नैतिक दायित्व समझने लगते ! बातों बातों में इन रेल यात्राओं में ना जाने कितनी शादियाँ तय हुई हैं और ना जाने कितनी अचार, चटनी, मुरब्बे, मिठाइयों की विधियाँ एक दूसरे के साथ साझा की गयी हैं ! खाने का वक्त होते ही सब अपना अपना खाना निकालते और आस पास के सभी सहयात्रियों के साथ मिल बाँट कर खाते ! अब तो ना तो कोई किसीको पूछता है ना ही कोई किसीसे लेना पसंद करता है ! जगह जगह चेतावनी देखने सुनने में आती है कि अजनबियों से कोई भी खाने पीने की वस्तु ना लें वह नशीली या ज़हरीली भी हो सकती है ! राम राम ! कहाँ जा रहे हैं हम लोग !

यात्राएं पहले लम्बी ज़रूर होती थीं लेकिन अखरती नहीं थीं ! बल्कि कई बार तो बच्चे भी दुखी हो जाते थे कि कितना मज़ा आ रहा था इतनी जल्दी स्टेशन क्यों आ गया ! अपने कॉमिक्स एक दूसरे के साथ एक्सचेंज करते, खाते पीते, खेलते कूदते, अन्ताक्षरी और वर्ड बिल्डिंग खेलते ही सारा समय बीत जाता ! इस बार की तेरह चौदह घंटे लम्बी यात्रा में तो मुझे ऐसा लगा कि जैसे सबका मौन व्रत ही है ट्रेन में ! कोई किसीसे बात नहीं कर रहा था सबके हाथों में अपने अपने फोन थे और कानों में ईयर फोन लगे हुए थे ! बात तो दूर कोई किसीकी ओर देख भी नहीं रहा था ! इक्का दुक्का कानों में किसीकी आवाज़ के टुकड़े कभी सुनाई भी दिए तो वो टेलीफोन पर किसीके साथ हो रही वार्ता के ही अंश थे ! उन दिनों की यात्रा में अक्सर गानों की बड़ी मीठी आवाजें सुनाई दे जाती थीं ! ट्रांज़िस्टर का ज़माना था ! डिब्बे में किसी न किसी के पास ज़रूर होता था ! कोई मनमौजी अगर जोश में आकर अपनी सुरीली तान छेड़ देता तो उसके पास फरमाइशों की झड़ी लग जाती और फिर तो कई सुरे बेसुरे कलाकार मूड में आ जाते और अच्छा खासा संगीत सम्मलेन हो जाता डिब्बे में ! अब तो लोग मोबाइल पर गीत भी कानों में ईयरफोन लगा कर सुनते हैं !

शताब्दी में भोपाल से ही मेरे साथ बीच के पैसेज के बाद वाली रो में एक युवक और युवती बैठे हुए थे ! सारे रास्ते मैंने उन लोगों के बीच एक शब्द का आदान प्रदान होते हुए नहीं देखा ! युवती अपने मोबाइल में बिज़ी थी और युवक अपने लैप टॉप पर ! ग्वालियर पर युवक नीचे उतर गया तो मैंने ऐसे ही पूछ लिया आप दिल्ली जा रही हैं ! वह बोली हाँ ! आज तो ट्रेन एक घंटा लेट हो गयी है ! दिल्ली पहुँचते हुए रात के बारह साढ़े बारह तो बज ही जायेंगे ! आपको अकेले दिक्कत तो नहीं होगी ! तब उसने बताया कि उसके साथ उसके पति हैं जो अभी नीचे उतर कर गए हैं ! मुझे आश्चर्य भी हुआ और प्रसन्नता भी कि अगर इतनी खामोशी हो पति पत्नी के बीच तो झगड़े की तो कोई संभावना बने ही ना ज़िंदगी में ! है ना ? क्या ख़याल है आपका ?


साधना वैद



1 comment :

  1. जिंदगी जीने की कला अपनी तरफ की होती
    कभी हंसकर कहीं रोकर अपनी जवानी को खोती।
    चु प चाप चलने में राज लिए हुए वह चलते
    कुछ अनचाहा हो जाने पर ही लोगों से लड़ते।।

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