Followers

Saturday, February 20, 2021

कह दो कान्हा

 


पत्थर की मूरत से पीड़ा कौन कहे
न के दावानल की ज्वाला कौन सहे 
सारे जग की पीर तुम्हें यदि छूती है
तो कान्हा क्यों मेरे दुःख पर मौन रहे !
  
विपथ जनों को राह तुम्हीं दिखलाते हो
पर्वत जैसी पीर तुम्हीं पिघलाते हो 
भवतारण दुखहारन करुणाकर कान्हा
मेरे अंतर का लावा किस ओर बहे !

नैनों में बस एक तुम्हीं तो बसते हो
मधुर मिलन की सुधियों में तुम हँसते हो
वंंशी के स्वर के संग जो बह जाती थी
उर संचित उस व्यथा कथा को कौन गहे !

बने हुए क्यों निर्मोही कह दो कान्हा
फेर लिया क्यों मुख मुझसे कह दो कान्हा
चरणों में थोड़ी सी जगह मुझे दे दो
राधा क्यों अपने माधव से दूर रहे !

श्याम तुम्हारे बिन यह जीवन सूना है
क्यों साधा यह मौन मुझे दुःख दूना है
थी तुमको भी प्रीत अगर बतलाओ तो
कैसे तुम अपने स्वजनों से दूर रहे !

साधना वैद

14 comments :

  1. कान्हा बस यही गुज़ारिश है कि मन की पीर है लो । या फिर कोई राह सुझाओ ।
    व्यथित मन से की गई भावभीनी प्रार्थना ।
    सुंदर प्रस्तुति।

    ReplyDelete
    Replies
    1. हार्दिक धन्यवाद संगीता जी ! आपका आगमन बहुत ही सुखद अनुभूति दे जाता है ! आपका हृदय से बहुत बहुत आभार !

      Delete
  2. आपकी इस प्रविष्टि् की चर्चा कल सोमवार (22-02-2021) को "शीतल झरना झरे प्रीत का"   (चर्चा अंक- 3985)    पर भी होगी।
    --
    सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है।
    --
     आप अन्य सामाजिक साइटों के अतिरिक्त दिल खोलकर दूसरों के ब्लॉगों पर भी अपनी टिप्पणी दीजिए। जिससे कि ब्लॉगों को जीवित रखा जा सके।
    --
    हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
    सादर...!
    डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक' 
    --

    ReplyDelete
    Replies
    1. आपका हृदय से बहुत बहुत धन्यवाद एवं आभार शास्त्री जी ! सादर वन्दे !

      Delete
  3. आपकी लिखी रचना "सांध्य दैनिक मुखरित मौन में" आज रविवार 21 फरवरी 2021 को साझा की गई है.........  "सांध्य दैनिक मुखरित मौन में" पर आप भी आइएगा....धन्यवाद!

    ReplyDelete
    Replies
    1. आपका हृदय से बहुत बहुत धन्यवाद एवं आभार यशोदा जी ! सप्रेम वन्दे सखी !

      Delete
  4. .....आजकल वो इस तरफ देखता है कम

    ReplyDelete
    Replies
    1. आपका बहुत बहुत धन्यवाद एवं आभार गगन जी ! सहमत हूँ आपसे ! आजकल वो इस तरफ देखता कम है !

      Delete
  5. This comment has been removed by the author.

    ReplyDelete
  6. बहुत ही मनभेदी उद्बोधन निष्ठुर कान्हा के नाम साधना जी। पहली चार पंक्तियाँ निशब्द कर गई!!
    पत्थर की मूरत से पीड़ा कौन कहे
    मन के दावानल की ज्वाला कौन सहे
    सारे जग की पीर तुम्हें यदि छूती है
    तो कान्हा क्यों मेरे दुःख पर मौन रहे !
    जिससे मन लगा हो सबसे ज्यादा पीड़ा वही देता है! हार्दिक बधाई इस सरल से भवभीने सृजन के लिए🌹🙏❤

    ReplyDelete
    Replies
    1. हार्दिक धन्यवाद रेणु जी ! रचना आपको अच्छी लगी मेरा श्रम सार्थक हुआ ! बहुत बहुत आभार !

      Delete
  7. श्याम तुम्हारे बिन यह जीवन सूना है
    क्यों साधा यह मौन मुझे दुःख दूना है👌👌👌👌

    ReplyDelete
  8. सुंदर प्रस्तुति।

    ReplyDelete