मेरे अंतर की बंजर धरती, 
भावों के खोखले बीज, 
विरक्ति का शुष्क सा मौसम,
मन पर छाया अवसाद का 
पल पल घना होता साया 
पूरी तरह से उजड़ गया है 
मेरे मन का उपवन ! 
अब कविता की पौध नहीं
उगती 
मन के किसी भी कोने में !
कभी जहाँ यह फसल लहलहाती
थी 
वहाँ सन्नाटों के डेरे
हैं 
सूखे मुरझाये फूलों के 
मृतप्राय पौधे धरा पर 
बिखरे पड़े हैं ! 
अब यहाँ सुगन्धित फूल
नहीं खिलते 
अब यहाँ तितलियाँ नहीं मँडराती
अब यहाँ बुलबुल गीत नहीं
गाती 
अब यहाँ भँवरे नहीं
गुनगुनाते 
अब यहाँ कोई नहीं आता ! 
यह मेरे अंतर का वह अभिशप्त
कोना है 
जहाँ सिर्फ मैं हूँ और है
मेरी 
नितांत निसंग एकाकी
परछाईं 
जिसका होना न होना किसी
के लिए 
शायद कोई मायने नहीं रखता
! 
 साधना वैद 

 
 
आपकी इस प्रस्तुति का लिंक 1.9.22 को चर्चा मंच पर चर्चा - 4539 में दिया जाएगा| आपकी उपस्थिति मंच की शोभा बढ़ाएगी
ReplyDeleteधन्यवाद
दिलबाग
आपका हृदय से बहुत बहुत धन्यवाद एवं आभार दिलबाग जी ! इतने दिनों कम्प्यूटर से दूरी होने के कारण प्रत्युत्तर देने में विलम्ब हुआ ! क्षमाप्राथी हूँ ! सादर वन्दे !
Deleteकविता की पौध तो अब भी उगी है, और जहाँ कोई नहीं होता वह शून्य ही तो परमात्मा का वास है!! हम जब उसके साये में रहते हैं तो दूजा कोई नहीं होता
ReplyDeleteहार्दिक धन्यवाद अनीता जी ! बहुत बहुत आभार आपका !
Deleteबहुत ही भावपूर्ण अभिव्यक्ति
ReplyDeleteबहुत बहुत आभार आपका भारती जी !
Deleteवाह वाह ! बहुत सुन्दर रचना !
ReplyDeleteबहुत बहुत धन्यवाद जीजी ! दिल से आभार आपका !
Deleteआपका हृदय से बहुत बहुत धन्यवाद एवं आभार यशोदा जी ! इतने दिनों कम्प्यूटर से दूरी होने के कारण प्रत्युत्तर देने में विलम्ब हुआ ! क्षमाप्राथी हूँ ! सप्रेम वन्दे सखी !
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