यह विषय बहुत ही सामयिक एवं
विचारणीय है ! इसमें संदेह नहीं है कि पारंपरिक तरीके से त्योहारों को मनाने का
चलन अब शिथिल होता जा रहा है ! इसके पीछे अनेक कारण हैं ! टी वी, मोबाइल, इन्टरनेट के
अविष्कारों ने इंसान को एकान्तप्रिय और अंतर्मुखी बना दिया है ! देशी भाषा में
कहें तो ‘इकलखोरा’ बना दिया है ! पहले जो लोग
सुबह होते ही दोस्तों, संगी साथियों की तलाश में घर से निकल पड़ते थे अब किसी परिचित
के आने के समाचार से ही उनकी भवों पर बल पड़ने लगे हैं ! जो लोग पहले समूह में
उल्लसित आनंदित होते थे अब वे एकांत में अपने मोबाइल.या टी वी. के साथ परम प्रसन्न
और संतुष्ट रहने लगे हैं ! किसीके घर जाना या किसी का घर में आना अब झंझट सा लगने
लगा है !
पहले संयुक्त परिवारों का चलन था ! त्योहारों में सारे पकवान घर पर ही सारी
महिलाएं मिल-जुल कर खुशी-खुशी बनाया करती थीं और घर के सभी सदस्य बड़े प्रेम से
उन्हें खाते थे, सराहते थे, खूब इनाम भी
दिए जाते थे युवा सदस्यों को ! इसलिए उत्साह बना रहता था ! इस सुखद परम्परा को
झटका लगा संयुक्त परिवारों के टूटने से ! अब समाज में हर दूसरा घर ऐसा है जिसमें
एकाकी, बीमार और अशक्त वृद्ध जन रहते हुए मिल जाते हैं ! पकवान बनाने का न उनमें
बूता बचा है न हज़म करने की ताकत इसीलिये पकवान घर में बनाने की परम्परा को भी
धक्का लगा है ! लोगों की आर्थिक स्थिति पहले से सुदृढ़ हुई है ! जो बच्चे साथ नहीं
रहते वे बाज़ार से पकवानों को ऑर्डर कर माता-पिता के पास भिजवा कर अपने कर्तव्य की
इतिश्री कर लेते हैं ! पहले ये सारे पकवान हलवाई के यहाँ मिलते भी नहीं थे सब घर
में ही बनाए जाते थे अब तो किसी भी पकवान का नाम लीजिए बाज़ार में हर चीज़ उपलब्ध है
! लोगों की जेब में पैसा उपलब्ध है तो चिंता किस बात की है !
पहले हर गली मोहल्ले में समूह के समूह एक साथ होली खेलते थे ! आस पड़ोस के हर घर
में सबसे मिलने जाते थे और सबके घरों के पकवानों का स्वाद लेते थे लेकिन अब चन्दा
जमा करके सामूहिक होली का आयोजन किसी पार्क या खुली जगह पर होने लगा है जहाँ कुछ
खाने पीने की व्यवस्था भी होती है ! सब वहीं पर एक दूसरे से मिल लेते हैं इसलिए अब
घरों में जाने की परम्परा भी ख़त्म हो गई ! इसलिए अधिक मात्रा में पकवानों को बनाने
की ज़रुरत भी ख़त्म हो गई ! थोड़ा सा शगुन का बना लिया जाता है और वही बनाया जाता है
जो आसानी से बन जाए और पच जाए !
आज की अति महत्वाकांक्षी पीढ़ी पर कैरियर बनाने का इतना अधिक प्रेशर है कि उनका
सारा समय कॉलेज, कोचिंग, ट्यूशन और
पढ़ाई में ही खर्च हो जाता है ! उसके बाद इन त्योहारों को पूरे जोश खरोश के साथ
मनाने का न तो उनमें उत्साह ही बचा रह जाता है न ही ऊर्जा ! उस पर इन दिनों
पर्यावरण संरक्षण को लेकर मीडिया के द्वारा इतनी सारी हिदायतें नसीहतें दी जाने
लगी हैं कि कोई भी त्योहार पारंपरिक तरीके से मनाना गुनाह सा लगने लगा है ! पहले
भी होली पर खूब रंगों से होली खेली जाती थी, थाल भर-भर कर अबीर
गुलाल उड़ाया जाता था हर आने जाने वाले को रंग लगाया जाता था किसीको कोई परेशानी
नहीं होती थी ! दीपावली पर भी खूब पटाखे चलाये जाते थे ! तेल के ढेर सारे दीपक
जलाए जाते थे ! सबको खूब आनंद आता था ! लेकिन अब हर पुरातन तरीके की इतनी आलोचना
होती है उससे पैदा होने वाली हानियों के बारे में इतने विस्तार से बताया जाता है
कि लोग उनसे विमुख होने लगे ! कोई सही विकल्प समझ नहीं आया तो लोगों ने उसे बिलकुल
ही छोड़ दिया ! रंगों से स्किन खराब हो जाती है तो अब सिर्फ गुलाल से सूखी होली खेलने
का चलन शुरू हो गया ! तेल के दीयों के जलाने से वातावरण में खराब महक फैलती है और
पटाखों से वायु प्रदूषण और ध्वनि प्रदूषण होता है तो लोगों ने बिजली की झालर लगानी आरम्भ
कर दी और पटाखे चलाने ही बंद कर दिए ! बच्चों को इन्हीं में तो मज़ा आता था ! उनका सारा
उत्साह समाप्त हो गया ! त्योहार का आनंद सबसे अधिक बच्चे ही उठाते हैं ! वे उदासीन
हो गए, बड़ों को रूचि नहीं रही ! कदाचित इसीलिये आज की युवा पीढ़ी परिवार के साथ
त्योहार मनाने के स्थान पर छुट्टियों का उपयोग घूमने जाने में करने लगी है !
रिश्तों में औपचारिकता आ गई है और दोस्ती शायद अब इतनी प्रगाढ़ नहीं रह गई है ! इसलिए
कह सकते हैं त्योहार अब उदासीनता के साथ ही मनाए जाते हैं ! इनकी सार्थकता अब फेसबुक,
इन्स्टाग्राम, व्हाट्स एप पर रंगरंगीले आकर्षक शुभकामना सन्देश, रील्स, फ़ोटोज़ आदि भेजने
तक ही सिमट कर रह गई है ! अब घर परिवार के सदस्यों के स्थान पर नितांत अजनबी
अपरिचितों की रील्स देख कर त्योहार मनाये जाने लगे हैं !
साधना वैद
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