दहेज़ की समस्या शाश्वत रूप से हमारे समाज में व्याप्त है और हर आम और ख़ास इंसान इससे
प्रभावित होता ही है ! समाज में अगर वर्ग भेद नहीं होता, सभी लोगों की आर्थिक स्तर एक
सा होता और अमीर गरीब का अंतर न होता तो शायद यह समस्या भी नहीं होती लेकिन ऐसा है
नहीं इसीलिए यह समस्या भी विकराल रूप धारण करती जा रही है !
पहले के युग में कम
उम्र में बच्चों की शादियाँ कर दी जाती थीं ! कम उम्र के लड़कों पर घर गृहस्थी की
ज़िम्मेदारी डाल दी जाती थी ! जिसे इतनी छोटी उम्र में वे उठाने में समर्थ नहीं
होते थे ! लड़कियों का पिता की सम्पत्ति में कोई अधिकार नहीं होता था इसलिए वे अपनी
बेटी को विवाह के समय यथा सामर्थ्य इतना सामान दे देते थे कि उनकी गृहस्थी की गाड़ी
सुचारू रूप से चल सके और बेटी पराई हो जाएगी तो उसका पिता के घर की सम्पत्ति में
कोई अधिकार नहीं रह जाएगा इसलिए प्रेम स्वरुप माता पिता बेटी को विवाह के समय ही
उसके हिस्से का धन दे दिया करते थे ! यह एक स्वस्थ परम्परा थी ! लेकिन कालांतर में
इसमें विकार आने लगे ! अमीर घर की लड़कियों को मिलने वाली दहेज़ की राशि और सामान को
देख देख कर लोगों में अजब तरह की ईर्ष्या और होड़ की भावना पनपने लगी और दहेज़ लोभी
लोगों ने अपनी बहुओं को मायके से और पैसा और कीमती सामान लाने के लिए दबाव डालना
शुरू किया और लड़कियों का जीवन ससुराल में बहुत ही दुःख भरा और यातनामय होने लगा !
यह दहेज़ प्रथा का विकृत स्वरूप था !
दहेज़ विरोधी कानून भी बने ! बच्चों की शादी की
उम्र भी बढ़ा दी गई लेकिन दहेज़ के दानव से पीछा नहीं छूटा ! लड़कियों की सुरक्षा को
ध्यान में रखते हुए नए क़ानून बने जिनमें पिता की सम्पत्ति में उसका भी बराबर का
हिस्सा सुरक्षित किया गया लेकिन इसकी वजह से परिवार में ही आतंरिक विघटन और क्लेश
का वातावरण बन गया और हालात ऐसे बिगड़े कि अब विवाहित लड़की को न तो ससुराल में
सम्मान मिलता था न ही मायके में उसका स्वागत होता था ! जबकि वह दोनों ही घरों में
समपत्ति की अधिकारिणी थी !
इन सारी बातों के अलावा शादी विवाह में इतना दिखावा और फिजूलखर्ची का चलन हो गया कि आम औसत आमदनी के व्यक्ति के लिए ऐसी आडम्बरपूर्ण शादियाँ करना बिलकुल बस के बाहर हो गया ! लेकिन बेटी के ससुराल पक्ष के लोगों की डिमांड्स पूरी करने के लिए उन्हें इस तकलीफ से भी गुज़रना पड़ता है जो कि बहुत ही शर्मनाक एवं कष्टप्रद अनुभव होता है !
इन सारी बातों के अलावा शादी विवाह में इतना दिखावा और फिजूलखर्ची का चलन हो गया कि आम औसत आमदनी के व्यक्ति के लिए ऐसी आडम्बरपूर्ण शादियाँ करना बिलकुल बस के बाहर हो गया ! लेकिन बेटी के ससुराल पक्ष के लोगों की डिमांड्स पूरी करने के लिए उन्हें इस तकलीफ से भी गुज़रना पड़ता है जो कि बहुत ही शर्मनाक एवं कष्टप्रद अनुभव होता है !
इस समस्या का निदान क़ानून बनाने से नहीं होगा ! दहेज़ विरोधी क़ानून तो
हमारे संविधान में पहले से ही मौजूद हैं लेकिन उनका पालन कहाँ होता है ! शादियों
में लेन देन और आडम्बर समय के साथ साथ बढ़ता ही जाता है और कोई इसे रोक नहीं पाता !
इसके लिए समाज के विभिन्न वर्ग के लोगों को ही मिल जुल कर पहल करनी होगी ! शादियाँ
बिलकुल सादगी के साथ सीमित खर्च में ही होनी चाहिए चाहे दूल्हा दुल्हन के घर वाले
कितने भी अमीर क्यों न हों ! उसके बाद उपहारों के लेन देन से किसीका कोई सम्बन्ध
नहीं होता यह बिलकुल निजी बात होती है ! न इसका कोई प्रदर्शन होना चाहिए ! इस
व्यवस्था से दहेज़ लोभी लोगों की मानसिकता में ज़रूर फर्क आएगा ! जो खर्च वे स्वयं
नहीं कर सकते उसके लिए बहू के घरवालों पर दबाव डालते हैं ! शादियाँ सादगी से की
जाएँगी तो बेवजह के दिखावे और शान शौकत के प्रदर्शन में किये जाने वाले खर्चों में
भी कमी आएगी और इससे कई परिवारों को ज़रूर राहत मिलेगी !
साधना वैद
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