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Sunday, January 3, 2016

कौन बताए ?



लाख तुमने पहन रखा हो
खामोशियों का जिरह बख्तर
मेरी आहें इतनी भी बेअसर नहीं
कि तुम्हारे इस कवच को
पिघला न सकें ! 

जिस दिन यह पिघल जाएगा
कैसे सामना करोगे
मेरे सवालों का ?
क्या उत्तर दोगे अपनी इस
अनायास ओढ़ी हुई बेरुखी का ?
क्या बहाना बनाओगे
एक बार फिर बरबस अपना
हाथ छुड़ा कर दूर चले जाने का ?
या कैसे आँखें मिला पाओगे उससे
जिसकी आस्था, जिसकी भक्ति
जिसके विश्वास, जिसकी अंध श्रद्धा को
तुमने बार-बार छला है ? 

क्यों छला है  
शायद इसका जवाब 
तुम्हें खुद नहीं पता !
किसीको उत्तर दो न दो
लेकिन क्या तुम कभी
खुद को भी इस सवाल का जवाब
दे पाए हो ?
यह तुम्हारी फितरत है या मजबूरी
कौन बताए ?

साधना वैद

Thursday, December 31, 2015

घर आँगन










ईंट गारे चूने से बना यह ढाँचा
केवल एक मकान नहीं है
यह तो युग-युग से साधक रहा है
हर रोज़ परवान चढ़तीं
हमारी बेलगाम ख्वाहिशों का,
हमारे बेहिसाब सपनों का,
हमारे अनगिनत अरमानों का
हमारी हज़ारों हसरतों का
हमारी मधुरतम कोमल कल्पनाओं का !
इस घर की चारदीवारी में मनाये
हर उत्सव, हर त्यौहार में  
हर होली, हर दीवाली में
घुले हैं हमारे जीवन के रंग,
इसके आँगन की
हर सुबह, हर शाम
हर धूप, हर बारिश की
स्मृतियाँ आज भी हैं हमारे संग !
वो होली के अवसर पर आँगन में
बहते उड़ते रंग और गुलाल
वो आँगन की धूप में बैठ
घर की स्त्रियों का सीना पिरोना
और वो बच्चों के धमाल,
वो आँगन भर चटाइयों पर सूखते
बड़ी, मंगौड़ी, पापड़, अचार 
वो तारों पर लटकते
गीले सूखे कपड़ों के अम्बार,
वो सिल बट्टे पर दाल और 
मसालों का पीसना 
वो गीत संगीत के कार्यक्रम में 
राधा का रूठना 
और कृष्ण का रीझना 
वो गर्मियों भर आँगन में
ठंडे पानी का छिड़काव
और खाटों का बिछाना
वो दीवाली पर आँगन के हर हिस्से में
आकर्षक रंगोली का सजाना
वो मिट्ठू का पिंजड़ा और
सिल्की सम्राट के खेल
वो बच्चों की साइकिलें
और खिलौनों की रेल 
वो पापाजी की चाय
और मम्मीजी की तरकारी
वो गरम पानी का चूल्हा और
  इंतज़ार में तकते रहना अपनी बारी !
कितने अनमोल पल हैं
जिनकी यादें अंकित हैं
आज भी इस अंतर में
भूलेंगे नहीं जीवन भर
 जो कुछ पाया है हमने इस घर में !
यह सिर्फ एक घर नहीं है
यह साक्षी है अनगिनत
परिवर्तनों का, प्रत्यावर्तनों का
जिसका हम सबको है आभास,
इसकी हर ईंट पर खुदी हैं
ना जाने कितनी कहानियाँ
और इसकी नींव में दबे हैं  
 ना जाने कितने इतिहास ! 
यहाँ पीढ़ियों ने जन्म लिया है
यहाँ सपनों को पंख मिले हैं
यहाँ ना जाने कितने
नन्हे नन्हे परिंदों ने
अपने सलोने से नीड़ में
आँखें खोली हैं और फिर
अपने सुकुमार पंखों में
असीम ऊर्जा भर नाप डाला है
 समूचे व्योम को अपनी उड़ान से !
अनमोल धागों से गुँथा यह घर
प्रतीक है हमारी आस्था का
द्योतक है हमारी साधना का
आधार है हमारे विश्वास का !
यह घर हमारे मन में बसा है
और हम इस घर में बसे हैं
हमें गर्व है कि संसार का 
सबसे खूबसूरत यह घर’ 
हमारा घर है !

 साधना वैद


Monday, December 28, 2015

सर्दी की रात


सर्दी की रात 
ठिठका सा कोहरा 
ठिठुरा गात ! 

तान के सोया 
कोहरे की चादर 
पागल चाँद ! 

काँपे बदन 
उघड़ा तन मन 
गगन तले ! 

चाय का प्याला 
सर्दी की बिसात पे 
बौना सा प्यादा ! 

लायें कहाँ से 
धरती की शैया पे 
गर्म रजाई ! 

ठंडी हवाएं 
सिहरता बदन
बुझा अलाव ! 

चाय की प्याली 
सर्दी के दानव को 
दूर भगाए ! 

दे दे इतना 
जला हुआ अलाव 
गरम चाय ! 

आँसू की बूँदें 
तारों के नयनों से 
झरती रहीं ! 

तारों के आँसू
आँचल में सहेजे 
धरती माता ! 


साधना वैद  

Friday, December 25, 2015

एक गुहार सांता से


दुलारे सांता
जानती हूँ मैं
बच्चों का मन रखने के लिये
तुम आओगे ज़रूर !
अपने जादुई थैले में दुबका कर
कुछ उपहार भी लाओगे ज़रूर !
लेकिन सच कहना
क्या आज के बच्चों की ‘मासूमियत’
तुम्हें अभी भी लुभाती है ?
उनकी गंदी मानसिकता,
उनकी आपराधिक गतिविधियां
क्या तुम्हारा कलेजा
छलनी नहीं करतीं ?
रहमदिल सांता !
कहाँ खो गये
वो भोले भाले मासूम बच्चे
जो तुम्हारी प्रतीक्षा में सारी रात
आँखों में ही गुज़ार देते थे
और सुबह उठते ही
घर के कोने में सजे
क्रिसमस ट्री के नीचे रखे
छोटे बड़े मोजों में छिपे उपहारों को
देख कर कितने उल्लसित हो जाते थे !
आज के बच्चे इन उपहारों से नहीं
पिस्तौल, तमंचे, रिवोल्वर से खेलते हैं !
उन्हें खिलौने वाली गुड़िया नहीं
जीती जागती गुड़िया चाहिए
जिसे नोंच कर फेंक देने में उन्हें
अपूर्व सुख मिलता है !
प्यारे सांता !
तुम तो जादूगर हो !
तुम कुछ करो ना !
इस क्रिसमस पर तुम
कोई उपहार लाओ न लाओ
इन बच्चों की मासूमियत,
इनका भोलापन, इनका बचपन   
इन्हें दिलवा दो !
उम्र से पहले बड़े हो गये
इन बच्चों को देख कर
वात्सल्य नहीं उमड़ता सांता
इन्हें देख कर डर लगता है !
तुमसे बस इतनी प्रार्थना है
तुम इन्हें एक बार फिर से 
बच्चा बना दो
इस क्रिसमस पर 
एक बार फिर से तुम इन्हें
  इनका भोलापन लौटा दो !  

साधना वैद