छोटे से एक्वेरियम
में बंद
बेचैनी से चक्कर
काटती
उस सफ़ेद मछली को
देखती रहती हूँ मैं अपलक
!
कितनी छोटी सी थी
जब मैं लाई थी उसे
अब बूढ़ी हो चली है !
सारा जीवन काट दिया
उसने
इस छोटे से काँच के
घर में
ऊपर नीचे दायें बाएं
अथक चक्कर लगाते !
कभी कुछ नहीं माँगा
कभी इस चारदीवारी से
बाहर नहीं निकली !
मैंने भी तो उसे
भोजन के चंद दानों
के सिवा
कभी कुछ और कहाँ
दिया !
कभी-कभी सोचती हूँ
क्या फर्क है इस
मछली में
और एक आम स्त्री के
जीवन में !
पिता का घर छोड़
छोटी
उम्र में ही
आ जाती है वह भी
अपने काँच के घर
वाली
ससुराल में और दिन
रात
अथक चक्कर लगाती
रहती है
अंतहीन दायित्वों के
निर्वहन में !
सास-ससुर, जेठ-जेठानी,
देवर-देवरानी,
ननद-नंदोई,
पति बच्चे और तमाम
सारे
नाते रिश्तेदार,
दोस्त अहबाब और पास
पड़ोसी
सबकी ज़रूरतों का
ध्यान रखते
वह कब बूढ़ी हो जाती
है
पता ही नहीं चलता !
बुनियादी ज़रूरतों को
पूरा करने के अलावा
कब कोई जानने की
कोशिश करता है कि उसे
भी
कुछ ज़रूरत हो सकती
है
उसकी भी कोई ख्वाहिश
हो सकती है
उसका भी कोई अरमान हो
सकता है !
वह तो बस एक ज़रिया
बन कर रह जाती है
और सब की ज़रूरतों
को
पूरा करने के लिये
और सब की
ख्वाहिशों को
तरजीह देने के लिये
और सब के अरमानों
को
सजाने सँवारने के लिये !
काँच की दीवारों के
बाहर का
आसमान उसे दिखाई तो
देता है
लेकिन उड़ान भरने के
लिये
उसके पास ना तो पंख होते हैं,
ना हौसला, ना ही काँच
के
उस मजबूत घर से
बाहर निकलने के लिये
उसे कोई द्वार ही दिखाई देता
है !
बेजुबान मछली की तरह
उसके भाग्य में भी इसी
तरह
अपने दायित्वों की
परिधि पर
घर की धुरी के इर्द गिर्द आजीवन
चक्कर काटना ही बदा
है
अथक निरंतर अहर्निश
बिना कुछ कहे
बिना कुछ माँगे !
साधना वैद
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