अक्षर-अक्षर जोड़ तुझे है ढाला मैंने
भावतूलिका से हर नक्श सँवारा मैंने
मनहर रंगों से तेरा श्रृंगार किया है
अपने मन मंदिर में तुझे बिठाया मैंने !
अपने उर की ज्योत तेरे उर में बाली है
प्रेम मन्त्र पढ़ने में ज्यों सिद्धि पा ली है
दिव्य कुसुम अर्पित कर इन मंजुल चरणों में
इस मूरत में प्राण प्रतिष्ठा कर डाली है !
अंतस की अग्नि से दीप जलाये मैंने
अश्रुमणि के कंठहार पहनाये मैंने
क्षुब्ध हृदय कीआह अगर सी सुलग उठी है
आर्द्र भाव से चन्दन तिलक लगाये मैंने !
विगलित गीतों से नित चरण पखारा करती
मान भरी व्याकुल हो तुम्हें पुकारा करती
पर तुम कब इन मौन पुकारों को सुन पाये
अक्षर अक्षत से नित थाल सजाया करती !
अपने मन मंदिर की मूरत गढ़ ली मैंने
भावलोक की हर ऊँचाई चढ़ ली मैंने
अंतर की जिस रचना में आकार लिया है
अक्षर-अक्षर शब्द-शब्द सब पढ़ ली मैंने !
साधना वैद
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