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Sunday, July 24, 2016

एक कहानी


एक मंज़िल थी
कुछ रास्ते थे
कुछ सीधे थे
कुछ घुमावदार थे
कुछ आसान थे
कुछ मुश्किल थे
कुछ अनजाने थे
कुछ पह्चाने थे
राह में लोगों की भीड़ थी
भीड़ में चहरे ही चहरे थे
कुछ अजनबी थे
कुछ अपने थे
     कुछ दीवाने थे     
कुछ बेगाने थे
कुछ सरल थे
 कुछ तरल थे 
कुछ कठोर थे
 कुछ कुटिल थे
कुछ हमराही थे
कुछ हमराज़ थे
कुछ हमसफ़र थे
 कुछ हमखयाल थे 
  सफर अंतहीन था  
जिजीविषा भी अंतहीन थी
अंतहीन व्याकुलता थी
प्रतीक्षा भी अंतहीन थी
अंतहीन विस्तार था
प्यास भी अंतहीन थी
सफर में चाँद भी था
सफर में चाँदनी भी थी
सफर में सितारे भी थे
सफर में अँधेरे भी थे
राह में पूनम भी थी
राह में अमावस भी थी
राह में फूल भी थे
राह में कंकड़ भी थे
राह में स्निग्ध कोमल स्पर्श था  
तो काँटों की चुभन भी थी
राह में बेपनाह खामोशियाँ थीं
तो उत्फुल्ल पंछियों की
खुशनुमां सरगोशियाँ भी थीं  
राह में आसानियाँ थीं
तो चुनौती देतीं दुश्वारियाँ भी थीं !
फिर एक लंबी सी रात आयी
   अमावस की अँधेरी भयावह रात   
उस रात जाने कैसी सुनामी आई
सब कुछ उलट पलट गया
सुबह जब उठे तो गड्डमड्ड होकर
  सब कुछ तबाह हो गया  
वो सारे प्यारे दुलारे से
जाने पहचाने से अपने चहरे
अनजान अपरिचितों की
भीड़ में कहीं खो गये 
पंचम सुर में उल्लास के गीत गाते
सारे के सारे उत्फुल्ल पंछी
खलाओं में कहीं बिला गये 
सारे हमसफर हमराज़
हमकदम हमखयाल
अपने कदम फेर
किसी और दिशा में मुड़ गये
और पीछे रह गयी
नितांत एकाकी और छली हुई
एक अभिशप्त आत्मा जो
अपने जख्मों को  
चुभते अहसासों की पैनी सुई से
खुद ही सिलती है और
खुद ही अपने वजूद को 
ज़िंदगी की सलीब पर टाँग 
थके कदमों से उस
गुमनाम मंज़िल की ओर
बढ़ती जाती है
जिसका कोई निशान
दुनिया के किसी भी नक़्शे पर
लाख खोजने पर भी
नहीं मिलता !

साधना वैद


Sunday, July 17, 2016

'सम्वेदना की नम धरा पर' -- रश्मि रविजा जी की नज़र से


Sadhana Vaidji से सबसे पहले परिचय उनकी टिप्पणियों के माध्यम से हुआ था .मेरे ब्लॉग की पोस्ट पर वे बहुत सारगर्भित टिप्पणियाँ करती थीं. कई बार उनकी टिप्पणियाँ, कहानी, कविताओं को नया अर्थ दे देती . लिखने वाले ,लिखने की रौ में कुछ लिख जाते और साधना जी ,उन पर प्रकाश डाल, उन्हें स्पष्ट कर देतीं .
उनकी माता जी श्रीमती ज्ञानवती सक्सेना 'किरण' एक प्रबुद्ध कवियत्री थीं और साधना जी का बचपन ,महादेवी वर्मा, पन्त, निराला के सान्निध्य में बीता है .उनकी माता जी इन महाकवियों के साथ कवि सम्मेलन में शामिल हो, मंच से कविता पढ़ती थीं .साधना जी में ये लेखकीय गुण आने ही थे .अपने ब्लॉग 'सुधीनामा 'में वे गद्य ,पद्य और संस्मरण सामान अधिकार से लिखती हैं. तीनों विधाओं पर उनका अद्भुत नियन्त्रण है.
उन्होंने एक ब्लॉग बना कर अपनी माता जी की भी सारी कवितायें भी बड़े प्यार से सहेज कर रखी हैं .

वे आगरा में रहती हैं, ये मुझे मालूम था और मेरे मन में ये निश्चित था कि मैं जब भी आगरा जाउंगी, उनसे जरूर मिलूंगी .अप्रैल में जब आगरा गई तो उन्हें सरप्राइज़ ही करने वाली थी पर ट्रेन के मेन्यू पर लिखे एक स्टेटस से वे समझ गईं और फिर उनका फोन आ गया . कई बार हमारी बातचीत हुई और उन्होंने बड़े प्यार से अपने घर पर आमंत्रित किया .
घर पर उनके पतिदेव थे और उनका प्यारा कुत्ता सम्राट था .उनके एक सुपुत्र अमेरिका में हैं और एक दिल्ली में . साधना जी का नवरात्र चल रहा था ,फिर भी उन्होंने टेबल भर कर मेरे लिए खाने की चीज़ें सजा रखी थीं. भाई साहब ने परिचय के बाद हमें पूरा एकांत दे दिया और खुद कम्प्यूटर पर काम करने चले गए .फोटो के लिए जब उन्हें साथ में बुलाया तो कहने लगे ,'आपलोग लिखने पढने वाले हैं...हमलोग बाहर के लोग हैं ' :) और उन्होंने सिर्फ हमारी फोटो खींची .
साधना जी ने इस मुलाक़ात पर एक प्यारी सी पोस्ट लिखी है .
साधना जी ने बहुत स्नेह के साथ अपना कविता संग्रह 'संवेदना की नम धरा पर ' मुझे भेंट किया . मुम्बई आने के बाद से ही मैं उसे पूरा पढ़ कर कुछ लिखना चाह रही थी .पर किसी न किसी वजह से देर होती रही .और फिर जब देर हो ही गई तो सोचा, अब साधना जी के जन्मदिन पर ही यह पोस्ट लिखी जायेगी .
साधना जी को जन्मदिन की अनेक शुभकामनाएं . वे स्वस्थ, सुखी, सानन्द रहें. दीर्घायु हों, ईश्वर उनकी सारी मनोकामनाएं पूर्ण करें .
उनकी 151 कविताओं के संकलन 'संवेदना की नम धरा पर ' एक नजर डालने की मेरी छोटी सी कोशिश .
"संवेदना की नम धरा पर "
साधना जी की कविताओं में जीवन का हर रंग समाहित है. इन कविताओं की सबसे बड़ी विशेषता है, वे दुरूह नहीं हैं और वे सिर्फ कवियों या विद्वानों के लिए नहीं हैं बल्कि आमजन के लिए भी हैं, जो इसे आसानी से आत्मसात कर सकता है. इन कविताओं में वह अपने जीवन ,उसके सुख-दुःख , मन में उठती-मचलती हर तरंग का प्रतिबिम्ब देख सकता है और समझ सकता है.
इन कविताओं में प्रेम ,विछोह, प्रकृति का अनुपम सौन्दर्य ,एक माँ की भावनाएं ,एक जिम्मेदार नागरिक का चिंतन, देश की वर्तमान स्थिति पर क्षोभ और भविष्य की चिंता सब बहुत खूबसूरती से व्यक्त हुआ है .उनकी कवितायें कभी कल्पना के परों पर बैठाकर किसी स्वप्नलोक में ले जाती हैं हैं तो कभी यथार्थ के कठोर धरातल का स्पर्श कराती हैं. उनकी सजग दृष्टि से जीवन का कोई भी क्षेत्र अछूता नहीं रहा. सामाजिक सरोकारों के साथ समसामयिक समस्याओं पर भी खुल कर लिखा है.
.उनकी कविताओं में ख़ूबसूरत और अनोखे बिम्ब नजर आते हैं. कहते हैं ,कविता दिमाग से नहीं दिल से लिखी जाती है पर इनकी दिल से लिखी कविताओं पर दिमाग का पूरा प्रभाव नजर आता है . इनमें अनुभूति और संवदेना भी है एवं चिंतन और विचार भी .
एक स्त्री के राह में आती बाधायें और उसका संघर्ष कई कविताओं में वर्णित हुआ है .'अनुनय' कविता में एक लडकी स्कूल जाने का आग्रह करती भोलेपन से कहती है ,
"मुझको भी अच्छी लगती है ,पुस्तक में लिखी हर बात
भैया पढता जोर जोर से ,हो जाती है मुझको याद ."
अगर लड़की पढ़ लिख भी लेती है पर फिर भी अपनी मर्जी से अपने भविष्य के निर्णय नहीं ले पाती ,यह व्यथा 'टुकड़ा टुकड़ा आसमान' कविता में बड़ी शिद्दत से उभर आई है
लड़की कातर होकर माँ से पूछती है,
" अपने सपनों को नई उंचाई देने के लिए
मैंने बड़े जतन से , टुकड़ा टुकड़ा आसमान जोड़ा था ,
परवान चढने से पहले मेरे पर क्यूँ कतर दिए माँ ."
वही लड़की कभी 'तुम क्या जानो' कविता में चुनौती देती हुई कहती है,
"' कंचन सी, कुंदन सी अपरूप दिपदिपाती
मैं खड़ी हूँ ,तुम्हारे सामने अजेय, अपराजेय, दिग्विजयी.
इस रूप में भी तुम जान लो
पहचान लो "
प्यार का रंग भी खूब बिखरा है उनकी कविताओं में ,'जीवन संध्या', 'कितना चाहा', 'कल रात ख़्वाब में' , 'झील के किनारे' , 'असमंजस', अहसास' ....इन कविताओं में प्यार का हर रूप अपनी पूरी गरिमा के साथ उपस्थित है. ये पंक्तियाँ कुछ ख़ास हैं .
" चल मन ले चल मुझे झील के उसी किनारे
शायद अब भी वहीँ रुकी हो बात तुम्हारी
किसी लहर में कैद पड़ी हो छवि तुम्हारी "
जब प्यार की खुशबू है तो विछोह का दर्द भी होगा.
'ज़रा ठहरो', 'टूटे घरौंदे' ,'वेदना की राह पर' ,'दर्दे जहर' ,'बस अब और नहीं'.. जैसी कवितायें आँखें नम कर देती हैं .
एक माँ की भावनाएं ,इस निर्मम जमाने में अपनी बेटी की चिंता ,उसके प्रति प्यार कई कविताओं में उभर कर आया है .अक्सर माँ -बेटे के प्यार पर कवितायें लिखी गई हैं .पर साधना जी ने माँ -बेटी के सम्बन्धों पर कई कवितायें लिखी हैं .पर सबसे ज्यादा स्तब्ध कर जाती है ,एक बलात्कारी के माँ की पीड़ा का वर्णन .शायद कोई नहीं सोचता, उस माँ पर क्या गुजरती है , जिसने इतने मन्नतों से बेटे को पाया ,इतने प्यार से पाला और उसने उसके प्यार का ये सिला दिया.
'सुमित्रा का संताप ' उनकी एक बहुत ही महत्वपूर्ण रचना है . उन्होंने उस माँ के दर्द को शब्द दिए हैं ,जिसे ह्मेशा हाशिये पर रखा गया .कौशल्या के दुःख की चर्चा होती है पर लक्ष्मण की माँ की पीड़ा को नज़रंदाज़ कर दिया जाता है .सुमित्रा पूछती है,
"मेरा दुःख गौण और बौना
क्या सिर्फ इसीलिये हो जाता है
कि मैं मर्यादा परुषोत्तम राम
की माँ कौशल्या नहीं
उनके अनुज लक्ष्मण
की माँ सुमित्रा हूँ ?

सामाजिक समस्याएं भी साधना जी के मन को व्यथित करती हैं , जब वे भ्रूण हत्याएं देखती हैं , छोटे छोटे हाथों को बस्ते उठाने की जगह काम करते देखती हैं तो उनका कवि हृदय विदीर्ण हो जाता है और उनका दर्द कलम की राह पन्ने पर फ़ैल जाता है.
देश की वर्तमान स्थिति उन्हें विगलित करती है और उनकी कलम उन महापुरुषों का स्मरण कर उठती है, जिन्होंने अपना सब कुछ गंवाकर हमें आज़ादी दिलाई थी .'भारत माँ का आर्तनाद' नामक कविता पढनेवाले के रोंगटे खड़े कर देती है और मन क्षोभ से भर जाता है, इतने स्वार्थी बन ,सिर्फ अपने सुख में लिप्त ,ये हम अपनी भारत माँ के साथ कैसा सलूक कर रहे हैं .
साधना जी ने गजलों को भी पूरी तवज्जो दी है और कई प्यारी ग़ज़लें लिखी हैं .. 'चंद शिकवे' ,'आये थे तेरे शहर में' ,'कब होता है'..जैसी पुरअसर गजलें संग्रह में शामिल हैं.
प्रकृति की अनुपम छटा भी उनकी कलम को मोहित करती है . और उसके सौन्दर्य को उकेरते हुए उन्होंने कई कवितायें रची हैं .
जैसा कि इस कविता संग्रह का नाम है ," संवेदना की नम धरा पर " सचमुच संवेदना की इस नमी ने गहरे असर करने वाली कविताओं को पल्लवित और पुष्पित किया है, जिनकी खुश्बू पढने वाले के ज़ेहन में दिनों तक बसी रहती है .उन्हें सतत सृजनरत रहने की अशेष शुभकामनाएं .


इतनी सार्थक, सारगर्भित एवं संतुलित समीक्षा के लिये आपका हृदय से बहुत-बहुत आभार रश्मि रविजा जी ! अनेकानेक धन्यवाद आपको !

साधना वैद  

Thursday, July 14, 2016

आये बदरा छाये बदरा



बरसो मेघा 
तृप्त कर दो तृषा 
प्यासी है धरा 
 
धरा प्रसन्न 
प्रतिफलित आस 
आये बदरा
 
प्यासी धरती 
उमड़ घुमड़ के 
आओ बदरा 
 
देखती राह 
दत्त चित्त वसुधा 
उमड़े मेघा
 
पानी में दिखे 
प्रतिबिंबित मेघा 
धरा का तप 

भर दो मेघा 
छोटी गुल्लक मेरी
मीठे जल से 
 
इंद्र देवता 
है आभार तुम्हारा 
पूजूँ पाहुन 

जीवनाधार 
छोटा सा जलाशय 
वनचरों का 

विहग वृन्द 
आओ न मेरे घर 
मीठा है पानी 

थोड़ा है पानी 
खुश हैं इंद्र देव 
फिर आयेंगे 

कोष छोटा है 
पर दिल है बड़ा 
सुस्वागतम 

फ़िक्र ना करो 
बाँटेंगे मिल जुल 
है जितना भी 

सुख न घटा 
दिखा अपनी छटा 
ओ काली घटा 

छाये बदरा 
सजाने वसुधा को 
आये बदरा 

बादल आये 
चिर तृषित धरा 
तृप्त मुस्काए 

साधना वैद



 
 


Tuesday, July 5, 2016

पेड़ का दर्द



अभी तो खड़ा हूँ
 अभी तो हरा हूँ  
अनगिनत पंछियों का
बसेरा खरा हूँ  !
लगाया था बाबा ने
मुझको तुम्हारे
हज़ारों ने खाए
मधुर फल हमारे !
हर इक शाख ने थामे  
झूले तुम्हारे
हर इक गीत पर
पात बजते हमारे !
मैं दादी से पोती
झुलाता रहा हूँ
मैं गीतों में हर दुःख
भुलाता रहा हूँ !
सम्हाला जतन से
न गिरने दिया है 
छिली बाँह का दर्द
 चुप हो पिया है !  
मेरी छाँह में सोये
जी भर मुसाफिर
हों बंदे खुदा के या
हों चाहे काफिर !
मैं सबको मधुर फल
खिलाता रहा हूँ  
मैं पत्तों से पंखा
झुलाता रहा हूँ !
न माँगा किसीसे
कभी कुछ भी मैंने  
न पाया किसीसे
कभी कुछ भी मैंने !
फिर क्यों आज आये
मुझे तुम गिराने
मेरी ऊँची हस्ती को
भू पर लिटाने !
कहाँ जायेंगे सारे
पंछी बेचारे
रहेंगे जहाँ में
 कहाँ ग़म के मारे !
ना झूले पड़ेंगे
ना गूँजेगी कजरी
हवा बंद ठण्डी 
कड़ी धूप ठहरी ! 
लिटा दो मुझे
काट डालो धरा पर 
मिलेगी न छाया
न होंगे मधुर फल !
ज़रा कुछ तो सोचो
किया क्या है मैंने
इस खुदगर्ज़ जग से
लिया क्या है मैंने !
यही इस जहाँ का
है दस्तूर प्यारे
  मिले जिससे जी भर  
उसे जग ये मारे !
  

साधना वैद

Saturday, July 2, 2016

आज के नेता



(१)  
भ्रष्ट आचरण का लगा, नेताजी को रोग
फल इनकी करतूत का, भुगतें बाकी लोग !
(२)
रूखी सूखी में कटे, जिनके बीते साल
सत्ता मिलते ही हुए, कैसे मालामाल !
(३)
वायुयान में जो उडें, रखें न नीचे पैर
पता चले करनी पड़े, आम रेल में सैर !
(४)
कुर्सी पाते ही चलें, ये शतरंजी चाल
घोटालों से जो बचे, पूछें जन का हाल !
(५)
नेता बनते ही हुए, तेवर बड़े अजीब
ठानी उनसे दुश्मनी, जो थे कभी करीब !
(६)
जनता से ही ऐंठ कर, बाँट रहे उपहार
नेता जी की हो रही, जग में जयजयकार !
(७)
नेताओं ने देश का, क्या कर डाला हाल
खुद भोगें सुविधा सभी, जनता है बदहाल !
(८)
माल सूत कर बढ़ गया, नेता जी का पेट
चलना भी दुश्वार है, रहते हैं लमलेट !
(९)
कौन सुने किससे कहें, मुफलिस की फ़रियाद
जंगल के इस राज में, खुदगर्ज़ी आबाद ! 
(१०)
रामराज का हो गया, सच में बंटाढार
नेता मद में चूर हैं, जनता है लाचार !

साधना वैद