एक मंज़िल थी
कुछ रास्ते थे
कुछ सीधे थे
कुछ घुमावदार थे
कुछ आसान थे
कुछ मुश्किल थे
कुछ अनजाने थे
कुछ पह्चाने थे
राह में लोगों की भीड़ थी
भीड़ में चहरे ही चहरे थे
कुछ अजनबी थे
कुछ अपने थे
कुछ दीवाने थे
कुछ बेगाने थे
कुछ सरल थे
कुछ तरल थे
कुछ कठोर थे
कुछ तरल थे
कुछ कठोर थे
कुछ कुटिल थे
कुछ हमराही थे
कुछ हमराज़ थे
कुछ हमसफ़र थे
कुछ हमखयाल थे
सफर अंतहीन था
जिजीविषा भी अंतहीन थी
अंतहीन व्याकुलता थी
प्रतीक्षा भी अंतहीन थी
अंतहीन विस्तार था
प्यास भी अंतहीन थी
सफर में चाँद भी था
सफर में चाँदनी भी थी
सफर में सितारे भी थे
सफर में अँधेरे भी थे
राह में पूनम भी थी
राह में अमावस भी थी
राह में फूल भी थे
राह में कंकड़ भी थे
राह में स्निग्ध कोमल स्पर्श था
तो काँटों की चुभन भी थी
राह में बेपनाह खामोशियाँ थीं
तो उत्फुल्ल पंछियों की
खुशनुमां सरगोशियाँ भी थीं
राह में आसानियाँ थीं
तो चुनौती देतीं दुश्वारियाँ भी थीं !
फिर एक लंबी सी रात आयी
अमावस की अँधेरी भयावह रात
उस रात जाने कैसी सुनामी आई
सब कुछ उलट पलट गया
सुबह जब उठे तो गड्डमड्ड होकर
सब कुछ तबाह हो गया
वो सारे प्यारे दुलारे से
जाने पहचाने से अपने चहरे
अनजान अपरिचितों की
भीड़ में कहीं खो गये
पंचम सुर में उल्लास के गीत गाते
सारे के सारे उत्फुल्ल पंछी
खलाओं में कहीं बिला गये
सारे हमसफर हमराज़
हमकदम हमखयाल
अपने कदम फेर
किसी और दिशा में मुड़ गये
और पीछे रह गयी
नितांत एकाकी और छली हुई
एक अभिशप्त आत्मा जो
अपने जख्मों को
चुभते अहसासों की पैनी सुई से
खुद ही सिलती है और
खुद ही अपने वजूद को
ज़िंदगी की सलीब पर टाँग
थके कदमों से उस
गुमनाम मंज़िल की ओर
बढ़ती जाती है
जिसका कोई निशान
दुनिया के किसी भी नक़्शे पर
लाख खोजने पर भी
नहीं मिलता !
साधना वैद
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