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Wednesday, March 8, 2017

सुमित्रा का संताप


नहीं समझ पाती, जीजी,
रक्ताश्रु तो मैंने भी
चौदह वर्ष तक तुमसे
कम नहीं बहाए हैं
फिर मेरे दुःख को कम कर
क्यों आँका जाता है ,
केवल इसीलिये कि
मैं राम की नहीं
लक्ष्मण की माँ हूँ
मेरे अंतर के व्रणों को
हृदयहीनता के स्थूल आवरण
के तले मुँदी हुई पलकों से
क्यों झाँका जाता है ?
बोलो जीजी
पुत्र विछोह की पीड़ा
क्या केवल तुमने भोगी थी ?
मैंने भी तो उतने ही
वर्ष, मास, सप्ताह, घड़ी, पल
पुत्र दरस का स्वप्न
आँखों में लिए
तुम्हारी परछाईं बन
तुम्हारे साथ-साथ ही काटे थे ना
फिर मेरी पीड़ा तुम्हारी पीड़ा से
बौनी कैसे हो गयी ?
वैधव्य का अभिशाप भी
अकेले तुमने ही तो नहीं सहा था ना
मैंने भी तो उस दंश की चुभन को
तुम्हारे साथ-साथ ही झेला था !
मेरे सुख सौभाग्य का सूर्य भी तो
उसी दिन अस्त हो गया था
जिस दिन कैकेयी की लालसा, ईर्ष्या
और महत्वाकांक्षा का मोल
महाराज दशरथ को
अपने प्राण गँवा कर
चुकाना पड़ा था !
फिर सारा विश्व कौशल्या की ही
व्यथा वेदना से आकुल व्याकुल क्यों है
क्या मेरी व्यथा वेदना किसी भी तरह
तुमसे कम थी ?
जीजी, राम की
भौतिक और भावनात्मक
आवश्यकताओं के लिये तो
उनकी संगिनी सीता उनके साथ थीं
लेकिन मेरे लक्ष्मण और उर्मिला ने तो
चौदह वर्ष का यह वनवास
नितांत अकेले शर शैया
की चुभन के साथ भोगा है !
वियोगिनी उर्मिला के
जीवन में पसरे तप्त मरुस्थलों की
शुष्कता, तपन और सन्नाटों की
भाषा को मैंने शब्द-शब्द पढ़ा है ,
और किसी भी तरह उन्हें
कम ना कर सकने की
अपनी लाचारी के आघात
को भी निरंतर अपने मन पर झेला है
फिर मेरी पीड़ा का आकलन
यह संसार कम कैसे कर लेता है ?
मेरा दुःख गौण और बौना
क्या सिर्फ इसीलिये हो जाता है
कि मैं मर्यादा परुषोत्तम राम
की माँ कौशल्या नहीं
उनके अनुज लक्ष्मण
की माँ सुमित्रा हूँ ?

साधना वैद

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