महीने
के आरम्भ में
चंद
रुपये मेरी हथेली पर रख
जिस तरह
तुम निश्चिन्त हो जाते हो
मैं
थोड़े ही निश्चिन्त हो सकती हूँ
अपनी सौ
ज़रूरतें भुला दूँ
पर बाकी
सबकी उम्मीदों पर पानी
थोड़े ही
फेर सकती हूँ !
उस पर
यह आदेश
सोच समझ
कर खर्च करना
कम हों
या ज्यादह जैसे भी हो
जुगत के
साथ पूरा महीना
इन्ही
रुपयों में गुज़र करना !
तुम्हें
तो बस जुबान हिलानी होती है
अग्नि
परीक्षा तो मुझे ही देनी होती है !
घर के
हर सदस्य की
तमाम ज़रूरतें, अनगिनत इच्छाएं,
ढेर सारे अरमान, उफनती हसरतें
सब इन
थोड़े से रुपयों की
सीमित
क्रयशक्ति में कैसे समेट लूँ
सारे
परिवार की परवान चढ़ती उमंगों को
इस छोटी
सी चादर में कैसे लपेट लूँ !
इनकी
चाहतों के धागे
एक
दूसरे के साथ गुथ कर
कितनी बुरी
तरह से उलझ गए हैं
कभी
जाना है तुमने ?
और
उन्हें सुलझाते सुलझाते
मैं कितना
टूट जाती हूँ
कितना
बिखर जाती हूँ
यह भी कभी
माना है तुमने ?
कितनी
अनगिनत गाँठें लग गयी हैं
बेतरतीब
उलझे हुए इन धागों में
जो किसी
भी तरह खुलती ही नहीं,
कितनी
बार इन्हें खोलते खोलते
मेरे
नाखून तक टूट गए हैं
लेकिन तमाम कोशिशों के बाद भी
पहले सी सीधी सपाट हो
ये कभी जुड़ती ही नहीं !
कितनी
ही बार भारी मन से
कभी-कभी
कैंची से भी काटनी
पड़ जाती
हैं ये गाँठें
लेकिन ये कोई साधारण ऊन या
धागों
की गाँठें नहीं हैं
उन्हें
काट दो तो दर्द नहीं होता
इन्हें
काट दूँ तो कई आँखों में
बिजली
कौंध जाती है
जो मेरा
सुख चैन जला कर
पल भर
में राख कर जाती है,
कई
आँखों में घटाएं उमड़ आती हैं
जो मेरी
आँखों से रक्तधारा बन
रिमझिम
बरसने लगती हैं !
थक गयी
हूँ बहुत अब
या तो
यह चादर बड़ी हो जाए
या फिर
ज़रूरतों के ये धागे
इतने
चिकने और मुलायम हो जाएँ
कि
इनमें कभी गाँठें लगे ही ना !
बस जीवन
में खुशियाँ ही खुशियाँ हों
ना तो कभी
आवेश की बिजली कौंधे
ना कभी सुर्ख रक्त की
जलधार
ही बहे !
साधना
वैद
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