स्वर्ग से नीचे
धरा पर उतरी
पहाड़ी नदी
करने आई
उद्धार जगत का
कल्याणी नदी
बहती जाती
अथक अहर्निश
युगों युगों से
करती रही
धरा अभिसिंचित
ये सदियों से
जीवन यह
है अर्पित तुमको
हे रत्नाकर
उमड़ चली
मिलने को तुमसे
मेरे सागर
सूर्य रश्मि से
पिघली हिमनद
सकुचाई सी
हँसती गाती
छल छल बहती
इठलाई सी
उथली धारा
बहती कल कल
प्रेम की धनी
उच्च चोटी से
झर झर झरती
झरना बनी
नीचे आकर
बन गयी नदिया
मिल धारा से
उन्मुक्त हुई
निर्बंध बह चली
हिम कारा से
बहे वेग से
भूमि पर आकर
मंथर धारा
मुग्ध हिया में
उल्लास जगत का
समाया सारा
एक ही साध
हो जाऊँ समाहित
पिया अंग मैं
रंग जाऊँगी
इक लय होकर
पिया रंग मैं
मेरा सागर
मधुर या कड़वा
मेरा आलय
सुख या दुःख
अमृत या हो विष
है देवालय
चाहत बस
पर्याय प्रणय की
मैं बन जाऊँ
मिसाल बनूँ
साजन के रंग में
मैं रंग जाऊं
साधना वैद
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