मैं मूर्तिकार तो नहीं
लेकिन वर्षों पहले बनाई थी मैंने
तुम्हारी एक मूरत
अपने मनमंदिर में स्थापित करने के लिए !
जानते हो तुम यह मूरत
वैसी बिलकुल भी नहीं थी जैसे तुम थे
इसे मैंने बड़ी मेहनत से तराशा था !
अपनी कल्पना की छैनी से मैंने
इसके मुख पर भावों को उभारा था,
अपने मन की कोमलता से मैंने
इस मूरत के हर अंग को आकार दिया था,
अपने अंतर में प्रवाहित करुणा की
अजस्त्र प्रवाहित अश्रुधारा से मैंने
इस मूरत की आँखों से झरते अलौकिक प्रेम के
दिव्य प्रकाश को सँवारा था !
मैं इस मूर्ति के शिल्प में
अपना ही प्रतिरूप देखना चाहती थी !
इसीलिये तो मेरे उर अंतर में बसी
इस मूर्ति का शिल्प शायद
उन सभी मूर्तियों से भिन्न है
जो संग्रहालयों की वीथियों में,
वहाँ के भव्य सभागारों में
युग युगांतर से सजी हुई खड़ी हैं !
क्योंकि इस मूर्ति में मेरे
मन के देवता का वास है
इसीलिये इसका शिल्प भी
मेरे मनोनुकूल है !
चित्र - गूगल से साभार
साधना वैद
सुप्रभात
ReplyDeleteवाह बहुत सुन्दर भाव लिए रचना |
आपकी लिखी रचना ब्लॉग "पांच लिंकों का आनन्द" मंगलवार 07 दिसम्बर 2021 को साझा की गयी है....
ReplyDeleteपाँच लिंकों का आनन्द पर आप भी आइएगा....धन्यवाद!
आपका हृदय से बहुत बहुत धन्यवाद एवं आभार यशोदा जी ! सप्रेम वन्दे !
Deleteमन ही देवता मन ही ईश्वर!!
ReplyDeleteहार्दिक धन्यवाद अनीता जी ! बहुत बहुत आभार आपका !
Deleteबहुत अच्छा
ReplyDeleteजानते हो तुम यह मूरत
वैसी बिलकुल भी नहीं थी जैसे तुम थे।
एक अलग तरह से लिखा गया है। पढ़कर अच्छा लगा।
बधाई
हार्दिक धन्यवाद सुनील जी ! बहुत बहुत आभार आपका !
Deleteसुंदर सृजन...
ReplyDeleteहार्दिक धन्यवाद विकास जी ! बहुत बहुत आभार आपका !
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