आगरा दिल्ली राष्ट्रीय राजमार्ग न. २ पर सिकंदरा के पास काफुर मोस्क का यह स्मारक अपनी समस्त भव्यता और खूबसूरती को बचाने की ज़द्दो ज़हद करता उपेक्षित सा खड़ा हुआ है ! इसे भारतीय पुरातत्व विभाग ने संरक्षित इमारतों की श्रेणी में तो अवश्य शुमार कर लिया है और इसकी सुरक्षा से सम्बंधित चेतावनी का बोर्ड भी लगा दिया है लेकिन यह आज भी पर्यटकों की उपेक्षा का शिकार है और बड़ी ही आतुरता से उनके आगमन की प्रतीक्षा सा करता दिखाई देता है ! जब हम इस स्मारक का दीदार करने गए तो हमें एक भी दर्शक इस स्थान के आस पास दिखाई नहीं दिया जबकि यह तो मुख्य मार्ग पर ही स्थित है ! कोई दिलचस्पी ले भी तो भला कैसे ले ! एक तो स्मारक के गेट पर हर समय बड़ा सा ताला लटका रहता है दूसरे वहाँ कोई गाइड या कर्मचारी भी दिखाई नहीं देता जो दर्शकों की जिज्ञासा को शांत कर सके या इस स्थान के ऐतिहासिक महत्त्व के बारे में पर्यटकों को कुछ बता सके ! आगरा इतना पुराना शहर है कि यहाँ हर फर्लांग दो फर्लांग पर कोई न कोई मुगलकालीन खंडहर अपनी बदहाली पर बिसूरता हुआ सा दिखाई दे जाता है जिसके बारे में किसी को कुछ भी पता नहीं होता लेकिन खंडहर खुद ही बताते हैं कि इमारत कभी कितनी बुलंद रही होगी !
काफुर मोस्क का निर्माण इतबारी खान नाम के एक कुलीन व्यक्ति ने सूफी संत ख्वाजा काफुर के सम्मान में सन १६०५ में करवाया था ! जहांगीर के शासनकाल में इतबार खान का शुमार बादशाह के बहुत ही ख़ास, भरोसेमंद और वफादार लोगों में किया जाता था ! इतबार खान की उपाधि भी कदाचित उन्हें इसीलिये दी गयी कि उन्होंने कभी बादशाह जहांगीर के ऐतबार को झूठा नहीं पड़ने दिया ! वे एक ख्वाज़सरा ( किन्नर ) थे और जहांगीर के हरम की हिफाज़त और देखभाल की ज़िम्मेदारी उनकी थी जिसे उन्होंने आजीवन बखूबी निभाया !
इस स्मारक में एक गुम्बद वाली छोटी सी इमारत है जिसमें नीचे बहुत ही सुन्दर मेहराबदार कमरे हैं ! बाहर की तरफ ऊपर जाने के लिए सीढ़ियाँ भी हैं ! अनुमान है कि यह इमारत उस वक्त सूफी संत ख्वाजा काफुर के निवास की तरह उपयोग में लाई जाती होगी ! उनकी मृत्यु के बाद इसे मस्जिद के रूप में बदल दिया गया होगा ! संभव है इसीलिये इस स्थान का नाम काफुर मोस्क पड़ा ! मोस्क के पास ही एक कुआं भी है जो शायद कालान्तर में सूख जाने पर भरवा दिया गया ! बाहर की तरफ दो चबूतरे हैं जिसमें एक चबूतरे पर सूफी संत ख्वाजा काफुर की कब्र है और दूसरे चबूतरे पर लाल पत्थर के एक घोड़े की मूर्ति विद्यमान है जिसके चारों पैर टूटे हुए हैं ! घोड़े की इस मूर्ति के बारे में भी अलग अलग मान्यताएं प्रचलित हैं ! एक विचार के अनुसार यह ख्वाजा काफ़ुर के प्रिय घोड़े की मूर्त्ति है और दूसरी मान्यता के अनुसार यह बादशाह अकबर के प्रिय घोड़े की मूर्ति है ! एक बार जब अकबर दिल्ली से आगरा घोड़े पर आये तो उनका घोड़ा यहाँ आते आते बेहद थक गया और बेदम होकर भूमि पर गिर ! यहीं पर उसकी मृत्यु हो गयी ! कहते हैं यह वही स्थान है जहाँ अकबर ने अपने घोड़े को दफनाया था और उसकी एक भव्य मूर्ति बनवा कर यहाँ स्थापित की थी ! एक मत के अनुसार अंग्रेजों के शासनकाल में जब यहाँ रेलवे लाइन बिछाई जा रही थी तो खुदाई में घोड़े की यह मूर्ति मिली जिसे उन लोगों ने सन १९२२ में काफुर मोस्क के परिसर में स्थित इस दूसरे चबूतरे पर रखवा दिया ! घोड़े की मूर्ति भव्य और आकर्षक है ! ऐसी बातों के बारे में इतिहास की पुस्तकों में कोई प्रामाणिक तथ्य नहीं मिलते इसीलिये किवदंतियों और कल्पना का सहारा लेकर ही तथ्यों को परोसा जा सकता है लेकिन इस स्मारक और इस घोड़े की ऐतिहासिकता या पुरातनता पर कोई प्रश्नचिन्ह नहीं लगाया जा सकता ! भारतीय पुरातत्व विभाग द्वारा इस स्मारक को अपने संरक्षण में लेना ही यह सिद्ध करता है कि यह स्मारक बहुत पुराना है और इसका ऐतिहासिक महत्त्व भी निर्विवाद है ! दरअसल यह ताजमहल से भी पुराना है ! मोस्क की मेहराबों पर इसके निर्माण के सन्दर्भ में फारसी भाषा में कुछ पंक्तियाँ भी उकेरी हुई मिलती हैं ! परिसर के अन्दर एक पत्थर पर इसके बारे में पुरातत्व विभाग का धुंधली सी लिखावट में एक सफ़ेद पत्थर भी लगा हुआ है जिसे हम बाहर से ही निहारते रहे ! अगर गेट पर ताला न लगा होता तो अन्दर जाकर विस्तार से पढ़ने का प्रयास किया जा सकता था ! सुनने सुनाने में ये कहानियाँ बड़ी अच्छी लगती हैं लेकिन इतिहास में इनके ठोस प्रमाण नहीं मिलते ! अब कौन इसकी पुष्टि करे कि घोड़े की मूर्ति सूफी संत काफुर के प्रिय पालतू घोड़े की है या अकबर के घोड़े की !
ख्वाजसरा इतबारी खान जहांगीर के बहुत ही विश्वस्त लोगों में गिने जाते थे ! जहांगीर ने अपने संस्मरणों में कई बार उनकी तारीफ़ की ! सन १६२२ में उन्हें आगरा का गवर्नर बना दिया गया और उनको आगरे के किले की और खजाने की सुरक्षा की ज़िम्मेदारी भी सौंप दी गयी ! सन १६२३ में जब शाहजहाँ के विद्रोह को दबाने में इतबारी खान सफल हुए तब खुश होकर जहांगीर ने उन्हें ‘मुमताज़ खान’ के खिताब से सम्मानित किया गया और उन्हें ६००० ज़ात और ५००० सवार देकर मनसबदार बना दिया ! उसी साल इतबारी खान की मृत्यु हो गयी !
काफुर मोस्क की सैर का अनुभव बहुत अच्छा रहा ! बहुत प्रसन्नता हुई यह देख कर की भारतीय पुरातत्व विभाग अपनी इन धरोहरों के संरक्षण एवं उचित रख रखाव के प्रति संवेदनशील भी है और गंभीर भी ! बस जो बात अखरती है वह स्मारकों के गेट पर पड़े तालों को देख कर चुभती है ! अगर स्मारकों पर समीचीन जानकारी के साथ एक दो कर्मचारियों की नियुक्ति कर दी जाए और पर्यटक अन्दर जाकर पास से इन स्मारकों को देख सकें तो इसमें कोई हानि नहीं है ! पर्यटक नए स्थान की नयी जानकारी के साथ अनुभव समृद्ध होकर ही जायेंगे ! मेरे विचार से अगर पाँच दस रुपये का टिकिट भी लगा दिया जाए तो कुछ ग़लत न होगा ! पर्यटकों की जिज्ञासा इन स्मारकों के प्रति बढ़ेगी और विभाग की कुछ आय भी बढ़ेगी जो इन्हीं इमारतों के रख रखाव के काम आयेगी ! अनेक पर्यटक यही कहते हैं कि ताजमहल, किला और फतेहपुर सीकरी के सिवा और क्या है आगरा में ! कितनी बार देखें इन्हें ! लेकिन उनके लिए तो यहाँ नायाब स्मारकों की लम्बी सूची है ! वो आगरा आकर कुछ समय तो बिताएं ! उनकी छुट्टियां ख़त्म हो जायेंगी लेकिन यहाँ की दर्शनीय इमारतों की सूची नहीं !
तो दोस्तों, आज की सैर यहीं तक ! मिलती हूँ आपसे जल्दी ही एक और बहुत ही रोचक स्थान पर उससे जुड़ी कहानियों के साथ ! नीचे एक लिंक दे रही हूँ ! तथ्यों की जानकारी के लिए आप इसे भी क्लिक कर सकते हैं !
बहुत सुन्दर आलेख ! मुझे इस बात का अफ़सोस है कि इतनी बार आगरा जाने के बाद भी यह स्थान नहीं देखा !
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