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Wednesday, August 31, 2022

मैं और मेरी परछाईं

 




मेरे अंतर की बंजर धरती,

भावों के खोखले बीज,

विरक्ति का शुष्क सा मौसम,

मन पर छाया अवसाद का

पल पल घना होता साया

पूरी तरह से उजड़ गया है

मेरे मन का उपवन !

अब कविता की पौध नहीं उगती

मन के किसी भी कोने में !

कभी जहाँ यह फसल लहलहाती थी

वहाँ सन्नाटों के डेरे हैं

सूखे मुरझाये फूलों के

मृतप्राय पौधे धरा पर

बिखरे पड़े हैं !

अब यहाँ सुगन्धित फूल नहीं खिलते

अब यहाँ तितलियाँ नहीं मँडराती

अब यहाँ बुलबुल गीत नहीं गाती

अब यहाँ भँवरे नहीं गुनगुनाते

अब यहाँ कोई नहीं आता !

यह मेरे अंतर का वह अभिशप्त कोना है

जहाँ सिर्फ मैं हूँ और है मेरी

नितांत निसंग एकाकी परछाईं

जिसका होना न होना किसी के लिए

शायद कोई मायने नहीं रखता !

 

 साधना वैद

 

 


9 comments :

  1. आपकी इस प्रस्तुति का लिंक 1.9.22 को चर्चा मंच पर चर्चा - 4539 में दिया जाएगा| आपकी उपस्थिति मंच की शोभा बढ़ाएगी
    धन्यवाद
    दिलबाग

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    1. आपका हृदय से बहुत बहुत धन्यवाद एवं आभार दिलबाग जी ! इतने दिनों कम्प्यूटर से दूरी होने के कारण प्रत्युत्तर देने में विलम्ब हुआ ! क्षमाप्राथी हूँ ! सादर वन्दे !

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  2. कविता की पौध तो अब भी उगी है, और जहाँ कोई नहीं होता वह शून्य ही तो परमात्मा का वास है!! हम जब उसके साये में रहते हैं तो दूजा कोई नहीं होता

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    1. हार्दिक धन्यवाद अनीता जी ! बहुत बहुत आभार आपका !

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  3. बहुत ही भावपूर्ण अभिव्यक्ति

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    1. बहुत बहुत आभार आपका भारती जी !

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  4. वाह वाह ! बहुत सुन्दर रचना !

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    1. बहुत बहुत धन्यवाद जीजी ! दिल से आभार आपका !

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  5. आपका हृदय से बहुत बहुत धन्यवाद एवं आभार यशोदा जी ! इतने दिनों कम्प्यूटर से दूरी होने के कारण प्रत्युत्तर देने में विलम्ब हुआ ! क्षमाप्राथी हूँ ! सप्रेम वन्दे सखी !

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