स्वार्थ भरे इस जगत में मिले सयाने लोग
सब अपने में लीन हैं जाने
कैसा रोग
प्रेम भाव का जगत
में नहीं आज कुछ मोल
चौंक पड़े हैं कान भी सुन कर
मीठे बोल
है स्वभाव का दास वो
आदत से मजबूर
किसको हम अपना कहें दिल है
गम से चूर
काश न होता इस कदर लोगों
में बदलाव
काश न ऐसे डूबती बीच भँवर
में नाव
सोगवार हैं हम सभी खो अपनी पहचान
कभी जगत था मानता हमें
गुणों की खान !
चित्र -- गूगल से साभार
साधना वैद
अत्यंत सुंदर
ReplyDeleteहार्दिक धन्यवाद ओंकार जी ! बहुत बहुत आभार आपका !
Deleteहार्दिक धन्यवाद यशोदा जी ! बहुत बहुत आभार आपका ! सप्रेम वन्दे !
ReplyDeleteहै स्वभाव का दास वो आदत से मजबूर
ReplyDeleteकिसको हम अपना कहें दिल है गम से चूर...
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सुंदर रचना
हार्दिक धन्यवाद हरीश जी ! बहुत बहुत आभार आपका !
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