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Thursday, September 18, 2025

छोटे-छोटे सपने

 


रेल की खिड़की से देखती हूँ
रेलवे लाइन के समानांतर बसी
झुग्गी झोंपड़ी की एक लम्बी सी कतार
,
मेरे डिब्बे के ठीक सामने   
एक छोटी सी झोंपड़ी,
झोंपड़ी में एक छोटा सा कमरा
कमरे में एक नीचा सा दरवाज़ा
दरवाजे से सटी कपड़े के टुकड़े से
आधी ढकी एक छोटी सी खिड़की
और कमरे के नंगे फर्श पर
असंख्य छेदों वाली
मटमैली सी फटी बनियान पहने
लेटा वह सपनों में डूबा हुआ
एक कृशकाय नौजवान !
सोचती हूँ,
कितना छोटा सा होगा न संसार
इस घर में रहने वालों का !
लेकिन क्या सच में उनकी सोच
,
उनकी आशाएं
, उनकी इच्छाएं,
उनकी आकांक्षाएं
, उनके सपने,
उनकी अभिलाषाएं
उस सीमित संसार में ही
घुट कर रह गयी होंगी ?
मेरे लिए वह एक अनाम सी
छोटी झोंपड़ी भर नहीं है !
वह तो है एक आँख
और खिड़की पर टंगा
वह आधा पर्दा है
उस आँख की पलक !
जैसे अपनी पलक खोलते ही
हम देखते हैं समूचा आसमान
,
विशाल धरती
, पेड़-पौधे
नदी-पहाड़
, बाग़-बगीचे,
झील-झरने
, चाँद-सितारे,
पशु-पंछी और भी न जाने क्या-क्या !
इस छोटे से कमरे के
नंगे फर्श पर लेटा यह युवक भी
अपनी आँख खोलते ही
यही सब तो देखता होगा
जो मैंने देखा, तुमने देखा
,

सारी दुनिया ने देखा !
तो फर्क कहाँ रहा
उसके या हमारे सपनों के संसार में,
सपनों के आकार में,
और सपनों के साकार होने के
उपक्रम में ?
कोई बता दे मुझे !




चित्र - गूगल से साभार 
 


साधना वैद




4 comments :

  1. बहुत हृदयस्पर्शी पंक्तियाँ 🙏

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    Replies
    1. हार्दिक धन्यवाद हरीश जी ! आभार आपका !

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  2. हम देखकर भी अनदेखा कर देते है

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    Replies
    1. हार्दिक धन्यवाद प्रिया जी ! आभार आपका !

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