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Thursday, October 22, 2015

प्रेम


निश्छल आँसू प्रेम के, अंतस के उच्छवास !
अनुपम यह उपहार है, ले लो आकर पास ! 

दीपशिखा सी जल रही, प्रियतम मैं दिन रात !
पंथ दिखाने को तुम्हें, पिघलाती निज गात ! 

दर्शन आतुर नैन हैं, कब आओगे नाथ !
तारे भी छिपने लगे, होने को है प्रात ! 

नैन निगोड़े नासमझ, नित्य निहारें बाट !
क्या आयेंगे प्राणधन, तज दुनिया के ठाट ? 

पवन पियाला प्रेम का, पी-पी पागल होय !
सारा जग सुरभित करे, स्वयम सुवासित होय ! 

गलियन-गलियन घूमती, गंध गमक गुन गाय !
प्रभु चरणों में वास है, क्यूँ न फिरूँ इतराय !  

अंतस आलोकित किया, दिखलाने को राह !
आ बैठो इस ठौर तुम, नहीं और कुछ चाह ! 

मनमंदिर में नेह की, जला रखी है ज्योत !
प्रियतम पथ भूलें नहीं, मिले न दूजा स्रोत ! 


साधना वैद
 

Monday, November 24, 2014

विनती सुनो मेरी




तेरी अभ्यर्थना में मैं
इस तरह झुका हुआ हूँ
मेरे भुवन भास्कर !
इस नश्वर जीवन की
एक और संध्या घिर आई है !
बड़े-बड़े डग भरता अन्धकार
अपना अखण्ड साम्राज्य
स्थापित करने
तीव्र गति से बढ़ता
चला आ रहा है !
मन को सहलाता ,
आँखों को ठण्डक पहुँचाता
यह मनोरम दृश्य
आहिस्ता-आहिस्ता
घने तिमिर के
प्रगाढ़ आलिंगन में  
अदृश्य होता जा रहा है !
बस अब कुछ पलों के बाद
शेष रह जाएगा
शाश्वत अवसान सा
एक अभेद्द्य सन्नाटा
जिसकी सुदृढ़ दीवारों में
चेतना की सेंध लगाना
नितांत असंभव हो जाता है !
प्रखर प्रकाश के मेरे महापुंज
अब तो उदित हो जाओ !  
छा जाओ मेरे मनाकाश पर
आलोकित कर दो
मन का कोना कोना
वरना भय है कि  
हवाओं के साज़ पर
हर पल हर क्षण 
मद्धम होती जा रही
और शनैः-शनैः
चिर मौन में विलीन
होती जा रही इन चंद
गिनीचुनी धड़कनों की
क्षीण सी प्रतिध्वनि को
सुन पाने की कवायद में ही
मेरे जीवन की यह संध्या भी
कहीं बीत न जाए
और उसके साथ ही
तुम्हारे दर्शन की साध भी
कहीं मेरे अंतर में ही
घुट कर न रह जाए !  
मेरे देवाधिदेव
मेरी बस इतनी सी
अभिलाषा है कि
तुम्हारे स्निग्ध कोमल
दिव्य आलोक के
कल-कल छल-छल
अजस्त्र प्रवाह में  
शिखर से मूल तक सराबोर हो
मैं अपने सहस्त्रों करपर्णों से
तुम्हें अंतिम बार
कोटिश: प्रणाम कर सकूँ
और अपने अवरुद्ध कंठ की
मर्माहत सी मर्मर ध्वनि में
अंतिम बार तुम्हारा
स्तुति गान कर
तुम्हें सुना सकूँ एवं  
अपने इस जन्म को
सफल कर सकूँ !
मेरे जीवन के ज्योतिस्तंभ
तुम्हारे पुनरागमन की
कितनी उत्कंठा के साथ
मुझे प्रतीक्षा है
इतना तो तुम
जानते हो ना ?  

साधना वैद

Sunday, March 4, 2012

एक बाँझ सी प्रतीक्षा



सदियों से प्रतीक्षा में रत
द्वार पर टिकी हुई
उसकी नज़रें
जम सी गयी हैं !
नहीं जानती उन्हें
किसका इंतज़ार है
और क्यों है
बस एक बेचैनी है
जो बर्दाश्त के बाहर है !
एक अकथनीय पीड़ा है
जो किसीके साथ
बाँटी नहीं जा सकती !
रोम रोम में बसी
एक बाँझ विवशता है
जिसका ना कोई निदान है
ना ही कोई समाधान !
बस एक वह है
एक अंतहीन इंतज़ार है
एक अलंघ्य दूरी है
जिसके इस पार वह है
लेकिन उस पार
कोई है या नहीं
वह तो
यह भी नहीं जानती !
वर्षों से इसी तरह
व्यर्थ, निष्फल, निष्प्रयोजन
प्रतीक्षा करते करते
वह स्वयं एक प्रतीक्षा
बन गयी है
एक ऐसी प्रतीक्षा
जिसका कोई प्रतिफल नहीं है !

साधना वैद !

Wednesday, January 11, 2012

तुम्हारा इंतज़ार है

मुक्ताकाश में सजी

तारक मालिका से

प्रेरणा ले मैंने

आज अपनी

पलकों की डोर में

अश्रु मुक्ताओं को पिरो कर

अपने नयनों के द्वारों को

मनमोहक बंदनवार से

तुम्हारे लिये

सजाया है !

बारिश की बूँदों पर

बिखरी सूर्य की

कोमल किरणों

की अनुकम्पा से

उल्लसित हो

अनायास मुस्कुरा उठे

इन्द्रधनुष से

प्रेरित हो मैंने

अपनी सारी

आशा और विश्वास,

श्रद्धा और अनुराग,

मान और अभिमान

हर्ष और उल्लास के

सजीले रंगों से

अपने हृदय द्वार को

सुन्दर अल्पना के

आकर्षक बूटों से

सजाया है !

झर-झर बहते

चंचल, उच्श्रंखल

निर्मल निर्झर से

एक सुरीली सी

तरल तान उधार ले

तुम्हारे लिये

कोमल स्वरों से सिक्त

एक सुमधुर

स्वागत गीत

भी गुनगुनाया है !

अब बस उस आहट

को सुनने के लिये

मन व्याकुल है

जब दिल की ज़मीन पर

तुम्हारे कदमों

के निशाँ पड़ेंगे

और पतझड़ की

इस वीरानी में

बहार के आ जाने का

एहसास होने लगेगा !

साधना वैद