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Saturday, April 16, 2011

आत्म साक्षात्कार

अब खुले वातायनो से सुखद, मन्द, सुरभित पवन के
मादक झोंके नहीं आते,
अंतर्मन की कालिमा उसमें मिल
उसे प्रदूषित कर जाती है।
अब नयनों से विशुद्ध करुणा जनित
पवित्र जल की निर्मल धारा नहीं बहती,
पुण्य सलिला गंगा की तरह
उसमें भी घृणा के विष की पंकिल धारा
साथ-साथ बहने लगी है।
अब व्यथित पीड़ित अवसन्न हृदय से
केवल ममता भरे आशीर्वचन और प्रार्थना
के स्वर ही उच्छवसित नहीं होते,
कम्पित अधरों से उलाहनों, आरोपों, प्रत्यारोपों की
प्रतिध्वनि भी झंकृत होने लगी है।
अब नीरव, उदास, अनमनी संध्याओं में
अवसाद का अंधकार मन में समा कर
उसे शिथिल, बोझिल, निर्जीव सा ही नहीं कर जाता,
उसमें अब आक्रोश की आँच भी नज़र आने लगी है
जो उसे धीमे-धीमे सुलगा कर प्रज्वलित कर जाती है।
लेकिन कैसी है यह आँच
जो मेरे मन को मथ कर उद्वेलित कर जाती है?
कैसा है यह प्रकाश
जिसके आलोक में मैं अपने सारे स्वप्नों के साथ-साथ
अपनी समस्त कोमलता, अपनी मानवता,
अपनी चेतना, अपनी आत्मा, अपना अंत:करण
और अपने सर्वांग को धू-धू कर जलता देख रही हूँ
नि:शब्द, अवाक, चुपचाप !
साधना वैद

23 comments :

  1. आदरणीय साधना वैद जी
    नमस्कार !
    ......बहुत सुन्दर भावाभिव्यक्ति !
    सार्थक और बेहद खूबसूरत,प्रभावी,उम्दा रचना है..शुभकामनाएं।

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  2. भावो को बहुत सुंदरता से तराश कर अमूल्य रचना का रूप दिया है.

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  3. कैसा है यह प्रकाश
    जिसके आलोक में मैं अपने सारे स्वप्नों के साथ-साथ
    अपनी समस्त कोमलता, अपनी मानवता,
    अपनी चेतना, अपनी आत्मा, अपना अंत:करण
    और अपने सर्वांग को धू-धू कर जलता देख रही हूँ
    नि:शब्द, अवाक, चुपचाप !


    बहुत ही सुंदर अभिव्यक्ति -
    एक टीस दे रही है ह्रदय को -
    एक प्रश्न पूछ रही है हम सब से ....
    ये प्रकाश कहाँ ये तो दामिनी है ......
    जिसकी चकाचौंध हमें झंकृत कर गयी है .....

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  4. बहुत ही सुंदर भाव से सुशोभित ये रचना...बहुत ही खुबसुरत और प्रभावशाली..।

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  5. अवसाद का अंधकार मन में समा कर
    उसे शिथिल, बोझिल, निर्जीव सा ही नहीं कर जाता,
    उसमें अब आक्रोश की आँच भी नज़र आने लगी है
    जो उसे धीमे-धीमे सुलगा कर प्रज्वलित कर जाती है।
    gahan prastuti

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  6. जिसके आलोक में मैं अपने सारे स्वप्नों के साथ-साथ
    अपनी समस्त कोमलता, अपनी मानवता,
    अपनी चेतना, अपनी आत्मा, अपना अंत:करण
    और अपने सर्वांग को धू-धू कर जलता देख रही हूँ
    नि:शब्द, अवाक, चुपचाप !

    वेदना से परिपूर्ण अभिव्यक्ति ...व्यथित मन की वेदना को शब्दों में समेट लिया है ..अच्छी प्रस्तुति

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  7. बहुत ही गहरी वेदना छलक रही है,इन पंक्तियों से...मन का गहन नैराश्य उजागर हो रहा है.

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  8. जिसके आलोक में मैं अपने सारे स्वप्नों के साथ-साथ
    अपनी समस्त कोमलता, अपनी मानवता,
    अपनी चेतना, अपनी आत्मा, अपना अंत:करण
    और अपने सर्वांग को धू-धू कर जलता देख रही हूँ
    नि:शब्द, अवाक, चुपचाप !

    शायद...
    यही उचित है..!!

    ReplyDelete
  9. जिसके आलोक में मैं अपने सारे स्वप्नों के साथ-साथ
    अपनी समस्त कोमलता, अपनी मानवता,
    अपनी चेतना, अपनी आत्मा, अपना अंत:करण
    और अपने सर्वांग को धू-धू कर जलता देख रही हूँ
    नि:शब्द, अवाक, चुपचाप !

    शायद...
    यही उचित है..!!

    ReplyDelete
  10. बहुत गहन भावमय पोस्ट बधाई
    आशा

    ReplyDelete
  11. केवल ममता भरे आशीर्वचन और प्रार्थना
    के स्वर ही उच्छवसित नहीं होते,
    कम्पित अधरों से उलाहनों, आरोपों, प्रत्यारोपों की
    प्रतिध्वनि भी झंकृत होने लगी है।
    ............................
    बिलकुल सत्य विवेचन है साधना जी..
    बहुत सार्थक कविता..
    आभार

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  12. अपने भावों को बेहतरीन शब्द दिए हैं आपने.. उम्दा रचना और आज कि दुनिया में हर जगह मिलावट के होने का भी खूबसूरत विवरण..

    तीन साल ब्लॉगिंग के पर आपके विचार का इंतज़ार है..
    आभार

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  13. बहुत ही सुंदर अभिव्यक्ति .....

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  14. बहुत सुंदर अभिव्यक्ति

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  15. पुण्य सलिला गंगा की तरह
    उसमें भी घृणा के विष की पंकिल धारा
    साथ-साथ बहने लगी है।


    भावुक...सुन्दर...मर्मस्पर्शी भावाभिव्यक्ति....

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  16. अवसाद धीरे धीरे इसी तरह धूं -धूं जलाता है हर संवेदना को ...
    मानसिक पीड़ा की अद्वितीय भावाभिव्यक्ति !

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  17. अब नयनों से विशुद्ध करुणा जनित
    पवित्र जल की निर्मल धारा नहीं बहती,
    पुण्य सलिला गंगा की तरह
    उसमें भी घृणा के विष की पंकिल धारा
    साथ-साथ बहने लगी है।....

    बहुत भावपूर्ण रचना...अंतस को गहराई तक छू जाती है..बहुत सुन्दर..आभार

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  18. बहुत ही गहरे भावों के साथ बेहतरीन प्रस्‍तुति ।

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  19. आदरणीया साधना जी बहुत ही सुंदर कविता बधाई और शुभकामनाएं |

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  20. कितना कठोर अनुभव है अपनी स्वयं को इस तरह देखना ...

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  21. aadardiya sadhnaaved ji namashkaar
    अब खुले वातायनो से सुखद, मन्द, सुरभित पवन के
    मादक झोंके नहीं आते,
    अंतर्मन की कालिमा उसमें मिल
    उसे प्रदूषित कर जाती है।
    अब नयनों से विशुद्ध करुणा जनित
    पवित्र जल की निर्मल धारा नहीं बहती,
    पुण्य सलिला गंगा की तरह
    उसमें भी घृणा के विष की पंकिल धारा
    साथ-साथ बहने लगी है।bahut sunder dil ko choo lenawali rachanaa ke liya bahut-bahut badhai.

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