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Tuesday, April 8, 2014

प्रतीक्षा



अचानक
यह कैसा सन्नाटा 
छा गया जीवन में
ना कोई आहट
 ना कोई दस्तक
 ना कोई आवाज़
 ना कोई साथ  
बस चहुँ ओर
पसरा हुआ एक शून्य
  धरती से आसमाँ तक  
एक बहुत
बड़ा सा शून्य !
जैसे जीने के लिये
कोई वजह ही नहीं
  जैसे हर सुबह 
हर शाम के
 अर्थ ही खो गये !
  ना कोई सवाल  
ना कोई जवाब
ना कोई ध्वनि
ना कोई प्रतिध्वनि !
बाकी जो बचा है
वह है सन्नाटा
एक दम घोंटू  
जानलेवा सन्नाटा !
 हवा के झोंके से  
खड़कना कुंडी का
और द्वार खोल
बेवजह पहरों
खड़े रहना उसका
एक अंतहीन निर्जन
सुनसान राह पर
टकटकी लगाये
एक निष्फल सी
आस लिये कि  
शायद तू आ जाये
या शायद तेरा
संदेसा ही आ जाये !
लेकिन क्या कभी
बहती धारा को
पलट कर पहाड़ों पर
चढ़ते देखा है ?
उसकी आस का सूरज
उदित हुए बिना
साँझ से पहले ही  
अस्त हो चुका है ! 
और प्रतीक्षा
वह बेचारी भी अब
थक कर सो चुकी है
चिरनिंद्रा में
शायद कभी ना
उठने के लिये !
  

साधना वैद

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