मेरे मितवा 
न कोई ख़त, न सन्देश,
न संकेत 
हर जगह से आज फिर मुझे   
खाली हाथ, रिक्त
हृदय, रिक्त मन 
लौटाया है तुमने   
एक बार फिर मेरी
उम्मीदों, 
मेरी आशा, मेरे
विश्वास को 
नर्मम होकर बलि 
चढ़ाया है तुमने !
मितवा मेरे 
ठान लिया है मैंने
तुम्हारे ज़ुल्म ओ
सितम से 
अब हार नहीं मानूँगी
चाहे जितनी बेरुखी
दिखा लो
मैं हथियार नहीं
डालूँगी ! 
ओ मनमीत   
आशा निराशा की इन 
सावनी बदलियों को 
अपने मनाकाश के किसी
सुदूर कोने में बहुत
सहेज कर 
छिपा लूँगी मैं और अगले
बरस 
सावन के महीने में 
जब फिर से पुरवा
चलेगी
मेरे मन में छिपी 
आशा निराशा की ये
बदलियाँ 
एक बार फिर उमड़ घुमड़
कर 
घिर आयेंगी और प्रेम
रस की 
उस घनघोर बारिश में
भीग कर  
तुम्हारी बेरुखी का
यह ताप   
खुद ब खुद शीतल हो
जाएगा ! 
मितवा मेरे
प्रकृति से यही तो
सीखा है मैंने 
हर मौसम अपना पूरा जलवा
दिखा
एक दिन उतार पर 
अवश्यमेव आता ही है 
और अंतत: परास्त हो कहीं
पार्श्व में विलीन
हो जाता है
 अगले बरस एक
बार फिर
उसी जोश खरोश के साथ
लौट कर आने के लिए !
मनमितवा 
मैं भी अगली बार 
फिर से लौट कर ज़रूर आऊँगी
और साथ ले आऊँगी वह
जादू 
जो विवश कर देगा
तुम्हें 
बेरुखी का अपना यह मुखौटा
उतार फेंकने के लिए 
क्योंकि कभी हारना तो
मैंने 
सीखा ही नहीं !
साधना वैद  

 
 
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