तुमने ही तो कहा था 
कि मुझे खुद को तलाशना होगा 
अपने अन्दर छिपी तमाम अनछुई 
अनगढ़ संभावनाओं को सँवार कर 
स्वयं ही तराशना होगा 
अपना लक्ष्य निर्धारित करना होगा 
और अपनी मंजिल भी 
खुद ही तय करनी होगी 
मंजिल तक पहुँचने के लिए 
अपने मार्ग को भी मुझे स्वयं ही 
सुगम बनाना होगा 
राह के सारे कंकड़ पत्थर चुन कर 
मार्ग को अवरुद्ध करने वाले 
सारे कटीले झाड़ झंखाड़ों को साफ़ कर ! 
मैंने तुम्हारे हर वचन को 
पूरी निष्ठा के साथ शिरोधार्य किया ! 
हर आदेश निर्देश को पूरी ईमानदारी 
और समर्पण भाव से निभाया ! 
देखो ! मेरे पास आओ ! 
मैंने तलाश लिया है खुद को 
सँवार ली है अपने अन्दर छिपी प्रतिभा 
निर्धारित कर लिया है अपना लक्ष्य 
तय कर ली है अपनी मंजिल और 
रास्ता भी सुगम बना लिया है ! 
लेकिन सब उद्दयम व्यर्थ हुआ जाता है
एक कदम भी मैं इस सुन्दर, 
सजे संवरे प्रशस्त मार्ग पर 
बढ़ा नहीं पा रही हूँ !
वर्षों से इसी एक स्थान पर 
रहने के उपरान्त भी अभी तक 
यह नहीं खोज पाई कि 
जिन श्रंखलाओं ने इतनी लम्बी अवधि तक 
मुझे एक कैदी की तरह यहाँ 
निरुद्ध कर रखा है उसका खूँटा 
कहाँ गढ़ा हुआ है 
यहीं कहीं ज़मीन में 
या फिर मेरे मन में !
साधना वैद

आपकी इस प्रविष्टि् की चर्चा कल बुधवार (09-09-2020) को "दास्तान ए लेखनी " (चर्चा अंक-3819) पर भी होगी।
ReplyDelete--
सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है।
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हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'
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आपका हृदय से बहुत बहुत धन्यवाद एवम् आभार शास्त्री जी! सादर वन्दे !
Deleteसत्य है
ReplyDeleteखूंटा सदा गड़ा ही रहता है
हार्दिक धन्यवाद अनीता जी ! बहुत बहुत आभार आपका !
Deleteआदरणीया साधना वैद जी, नमस्ते! बहुत अच्छी रचना!
ReplyDeleteमुझे एक कैदी की तरह यहाँ
निरुद्ध कर रखा है उसका खूँटा
कहाँ गढ़ा हुआ है
यहीं कहीं ज़मीन में
या फिर मेरे मन में ! लाजवाब!
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सादर!--ब्रजेन्द्रनाथ
हार्दिक धन्यवाद मर्मज्ञ जी ! बहुत बहुत आभार आपका !
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