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Friday, July 11, 2025

बहका सा मन

 





देखा था जब तुम्हें पहली बार

तो न जाने क्यों दिल दिमाग को

झकझोर रही थी महुआ की

मदिर गंध बारम्बार !

उठती गिरती बरौनियों की

चिलमन में छिपी तुम्हारी

नशीली सी आँखें,

जैसे दे रहीं थीं आमंत्रण मुझे

कि ‘चलो उड़ चलें दूर गगन में

खोल कर अपनी पाँखें’ !

प्रणय की अनुभूतियों से प्रकम्पित

तुम्हारी लड़खड़ाती सी आवाज़,

खींच कर मुझे भी लिए जाती थी

महुआ के उस उपवन में

जहाँ महुआ के सुर्ख लाल फूलों की

चूनर ओढ़ थिरकती थी हवा और

महुआ के हरे चिकने पात

हर्षित होकर बजा रहे थे सुरीला साज़ !

कहाँ छिप गयी हो तुम प्रिये

आ जाओ न !

जीवन में फिर से बसंत महका है,

महुआ में फिर से फूल खिले हैं,

तुमसे मिलने को आतुर

मेरा मन चिर तृषित मन आज

फिर तुम्हारे लिए बहका है !



चित्र - गूगल से साभार ! 

साधना वैद


6 comments :

  1. Replies
    1. हार्दिक धन्यवाद हरीश जी ! बहुत-बहुत आभार आपका !

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  2. महुआ की गंध से ओतप्रोत सुंदर रचना

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    1. हार्दिक धन्यवाद अनीता जी ! बहुत-बहुत आभार आपका !

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  3. बहुत सुंदर

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    Replies
    1. हार्दिक धन्यवाद ओंकार जी ! बहुत-बहुत आभार आपका !

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