सागर का तट मैं एकाकी और उदासी शाम
ढलता सूरज देख रही हूँ अपलक और अविराम ।
जितना गहरा सागर उतनी भावों की गहराई
कितना आकुल अंतर कितनी स्मृतियाँ उद्दाम ।
पंछी दल लौटे नीड़ों को मेरा नीड़ कहाँ है
नहीं कोई आतुर चलने को मेरी उंगली थाम ।
सूरज डूबा और आखिरी दृश्य घुला पानी में
दूर क्षितिज तक जल और नभ अब पसरे हैं गुमनाम ।
बाहर भी तम भीतर भी तम लुप्त हुई सब माया
सुनती हूँ दोनों का गर्जन निश्चल और निष्काम ।
कोई होता जो मेरे इस मूक रुदन को सुनता
कोई आकर मुझे जगाता बन कर मेरा राम।
साधना वैद
अत्यन्त भाव भरी सुन्दर रचना.........
ReplyDeleteअभिनन्दन !
सूरज डूबा और आखिरी दृश्य घुला पानी में
ReplyDeleteदूर क्षितिज तक जल और नभ अब पसरे हैं गुमनाम
sagar ke kinare khade hokar kayi baar is tarah ki bhavnayein man mein aayi hai. achha laga inhein is kavita mein bandha likha dekh kar