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Friday, January 29, 2010

जीवन गीत ( कविता )

मंजिलें हैं दूर यह मालूम है ,
पाँव थक कर चूर, यह मालूम है ,
क्या हुआ साथी जो पीछे रह गए ,
राह अपनी खुद बनाना सीख ले |

है अमावस का घना साया पड़ा
सूर्य को भी रश्क तुझसे है बड़ा
क्या हुआ राहें अंधेरी हैं अगर
दीप अपना खुद जलाना सीख ले |

ज़िंदगी के खेल बेढब हैं बड़े ,
हसरतों पर तंज के पहरे पड़े ,
क्या हुआ जो हार है तकदीर में
हौसला अपना बढ़ाना सीख ले |

तार टूटे बीन के तो क्या हुआ ,
बोल बिखरे गीत के तो क्या हुआ ,
क्या हुआ सुर ताल लय धुन खो गए ,
गीत अपना गुनगुनाना सीख ले |

साधना वैद

Monday, January 18, 2010

सुधियों का क्या ... !

सुधियों का क्या ये तो यूँ ही घिर आती हैं
पर तुमने तो एक बार पलट कर ना देखा ।

जब चंदा ने तारों ने मेरी कथा सुनी
जब उपवन की कलियों ने मेरी व्यथा सुनी
जब संध्या के आँचल ने मुझको सहलाया
जब बारिश की बूँदों ने मुझको दुलराया ।
भावों का क्या ये तो यूँ ही बह आते हैं
पर तुमने तो एक बार पलट कर ना देखा ।

जब अंतर्मन में मची हुई थी इक हलचल
जब बाह्य जगत में भी होती थी उथल-पुथल
जब सम्बल के हित मैंने तुम्हें पुकारा था
जब मिथ्या निकला हर इक शब्द तुम्हारा था ।
नयनों का क्या ये तो बरबस भर आते हैं
पर तुमने तो एक बार पलट कर ना देखा ।

जब मन पर अनबुझ संतापों का फेरा था
जब जग की छलनाओं ने मुझको घेरा था
जब गिन गिन तारे मैंने काटी थीं रातें
जब दीवारों से होती थीं मेरी बातें ।
छालों का क्या ये तो यूँ ही छिल जाते हैं
पर तुमने तो एक बार पलट कर ना देखा ।

जब मन में धधका था इक भीषण दावानल
जब आँखों से बहता था इक सागर अविरल
जब दंशों ने था दग्ध किया मेरे दिल को
जब गिरा न पाई मन पर पड़ी हुई सिल को ।
ज़ख्मों का क्या ये तो यूँ ही रिस जाते हैं
पर तुमने तो एक बार पलट कर ना देखा ।


साधना वैद

Saturday, January 16, 2010

चल मेरे मटके टिम्बकटू ( बाल कथा ) - 2

यह कहानी भी मेरे बच्चों और अब उनके भी बच्चों की मनपसन्द कहानी है । आप भी इसका आनन्द लीजिये और बच्चों को सुनाइये ।


एक थी बुढ़िया । बुढ़िया रहती थी गाँव में । बुढ़िया की बेटी रहती थी शहर में । बीच में था घना जंगल । जंगल में थे खतरनाक जानवर । एक बार बुढ़िया की बेटी ने अपनी माँ को कुछ दिन अपने साथ रहने के लिये शहर बुलाया । बुढ़िया बहुत खुश हुई । उसने अपनी बेटी के लिये बहुत सारे पक्वान बनाये और खूब सारे उपहार इकट्ठे किये और शहर की ओर चल पड़ी ।
जंगल के रास्ते में पहले उसे मिला भेड़िया । भेड़िया बोला, “ बुढ़िया-बुढ़िया मैं तुझे खाउँगा । “
बुढिया बोली, “ अभी नहीं । पहले मैं अपनी बेटी से मिल आऊँ । मोटी ताजी हो जाऊँ तब खाना । “
भेड़िया बोला , “ ठीक है । लेकिन जल्दी आना । “
बुढ़िया आगे चली । अब उसे मिला लकड़बग्घा । वह भी बोला, ” बुढ़िया-बुढ़िया मैं तुझे खाऊँगा । “
बुढ़िया बोली , “ अभी नहीं । पहले मैं अपनी बेटी से मिल आऊँ । मोटी ताजी हो जाऊँ तब खाना । “
लकड़बग्घा बोला, “ ठीक है । पर जल्दी आना । “
इसी तरह जंगल में दूसरे जानवर जैसे लोमड़ी, भालू और शेर भी मिले जो सभी बुढ़िया को खाना चाहते थे । बुढ़िया ने सबको यही जवाब दिया ,” पहले मैं अपनी बेटी से मिल आऊँ । मोटी ताजी हो जाऊँ तब खाना । “
सबने कहा ठीक है । इस तरह जंगल पार करके बुढ़िया अपनी बेटी के घर पहुँच गयी । बेटी उसे देख कर बहुत खुश हुई । बुढ़िया ने उसे सारे पक्वान और उपहार दिये । बेटी ने भी बुढ़िया की बहुत खातिर की और दोनों कुछ दिन खूब आराम से रहीं ।
अब बुढ़िया के वापिस अपने घर आने का टाइम पास आ गया । बुढ़िया चिंता के मारे उदास रहने लगी । बेटी ने उससे पूछा, ” माँ तुम क्यों परेशान हो ? “ बुढ़िया ने उसे जंगल के जानवरों से हुई सारी बात बताई और कहा कि अब तो लौटते वक़्त सारे जानवर उसे खा जायेंगे । लेकिन बेटी बहुत समझदार थी । उसने माँ से कहा, “ तुम चिंता मत करो । “ अब बेटी ने बुढ़िया के लौटने की तैयारी शुरू की ।
उसने एक खूब बड़ा मटका मँगवाया । उसमें बुढिया के लिये खाना, पानी और ज़रूरत का सामान रख दिया । और उस मटके में बुढ़िया को भी बैठा दिया । मटके के मुँह पर एक कपड़ा बाँध दिया और अपनी माँ से टाटा-टाटा बाई-बाई करके मटके को जंगल के रास्ते पर लुढ़का दिया । बुढिया अन्दर से ही मटके को आगे लुढ़काती जाती थी और बोलती जाती थी,
” चल मेरे मटके टिम्बकटू । चल मेरे मटके टिम्बकटू । “ और मटका आगे लुढ़कने लगता था ।
जंगल के रास्ते में सबसे पहले मिला भेड़िया जो बुढ़िया के लौटने का बसब्री से इंतज़ार कर रहा था ।
उसने मटके से पूछा, “ मटके-मटके क्या तुमने बुढिया को देखा है ? “
अन्दर से बुढ़िया ने उसे डाँट कर कहा -
” चल हट । कहाँ की बुढ़िया कहाँ का तू ।
चल मेरे मटके टिंबकटू । चल मेरे मटके टिम्बकटू । “
और जल्दी से मटके को आगे लुढ़का दिया । भेड़िये को आवाज़ कुछ-कुछ जानी पहचानी सी लगी और वह मटके के पीछे-पीछे चलने लगा ।
इसी तरह आगे उसको लकड-बग्घा, भालू, लोमड़ी आदि सभी मिले । जब उन्होने भी मटके से पूछा , “ मटके मटके क्या तुमने बुढ़िया को देखा है ? “
तो बुढ़िया ने उन्हें भी इसी तरह फटकार कर ज़ोर से कहा ,
” चल हट । कहाँ की बुढ़िया कहाँ का तू ।
चल मेरे मटके टिम्बकटू । चल मेरे मटके टिम्बकटू । “
और जल्दी-जल्दी मटके को लुढ़का कर आगे-आगे बढ़ाती गयी । सारे जानवर मटके के पीछे-पीछे चलने लगे ।
बुढ़िया का घर पास आता जा रहा था । लेकिन अब रास्ते में बैठा था शेर । वह भी बुढ़िया के लौटने का इंतज़ार कर रहा था । मटके को देख वह दहाड़ कर बोला ,
” मटके-मटके क्या तूने बुढ़िया को देखा है ? “
शेर की दहाड़ से बुढ़िया डर गयी और काँपती आवाज़ में बोली,
” क..हाँ.. की. .बु..ढ़ि..या.. .क..हाँ.. का.. तू ..।
च..ल.. मे..रे.. म..ट..के.. टि..म्ब..क..टू.., टि..म्ब..क..टू.., टि..म्ब..क..टू.. ।“.....
और जान बचाने के लिये जल्दी-जल्दी मटका लुढ़काने लगी । इसी हड़बड़ी में वह सामने पड़े पत्थर को नहीं देख पाई । मटका पत्थर से टकरा गया और फूट गया । अन्दर से निकल पड़ी बुढ़िया । जानवर हैरानी से बोले, “अरे-अरे यह तो बुढ़िया है । “
बुढ़िया पहले तो घबराई पर फिर हिम्मत कर पास में पड़े रेत के ढेर पर जाकर खड़ी हो गयी और जानवरों को डाँट कर बोली, ” अगर मुझे खाना चाहते हो तो तुम सब मेरे पास आकर बैठ जाओ । “
जानवर खुश होकर बुढ़िया के सामने आकर बैठ गये । बुढिया भी रेत के ढेर पर बैठ गयी । और पूरी ताकत लगा कर रेत को फूँकने लगी । रेत उड़ कर जानवरों की आँखों में भर गयी और उन्हें दिखाई देना बन्द हो गया । सारे जानवर दोनों हाथों से अपनी आँखें मलंने लगे । मौके का फायदा उठा कर बुढिया जल्दी से दौड़ कर अपने घर में घुस गयी और उसने अन्दर से दरवाज़ा कस कर बन्द कर लिया ।
इस तरह अपनी बेटी की चतुराई और अपनी हिम्मत से उसने अपनी जान भी बचा ली और बेटी से मिलने की अपनी इच्छा भी पूरी कर ली ।

साधना वैद

Thursday, January 14, 2010

जैसी मेरी टोपी वैसी राजा की भी नहीं ( बाल कथा ) -1

मेरे घर में जो नन्हे मुन्ने बच्चे हैं उन्हें यह कहानी बहुत पसन्द है । खाना हो या सोना जब तक यह कहानी उन्हें ना सुनाई जाये उनका काम नहीं चलता । यह कहानी है एक चंचल और शरारती चिड़िया की जो कभी हार नहीं मानती थी और हर विषम परिस्थिति में भी कुछ ना कुछ सकारात्मक और सुखद उसे ज़रूर दिखाई दे जाता था । सोचा ऐसी बहादुर और साहसी चिड़िया की कहानी और बच्चों को भी सुनाऊँ शायद उन्हें भी यह अच्छी लगे । तो लीजिये आप भी सुनिये और यदि पसन्द आये तो अपने बच्चों को भी सुनाइये ।

एक थी चिड़िया । छोटी सी, नन्हीं सी, बहुत प्यारी सी । एक दिन उसको कहीं से थोड़ी सी रुई मिल गयी । वह सोचने लगी ‘ इस रुई का मैं क्या करूँ ।‘ तभी उसने देखा कि एक धुनिया धुन-धुन करके रुई धुन रहा है । चिड़िया दौड़ी-दौड़ी उसके पास गयी और उससे बोली -
” धुन्नक धुन्ना कर दे रे, धुन्नक धुन्ना कर दे रे । “
धुनिये ने चिड़िया की रुई को धुन कर उसे दे दिया । थोड़ी सी रुई फूल कर खूब सारी हो गयी । अब तो चिड़िया बहुत खुश हो गयी । सोचने लगी ‘ अगर मेरी इस रुई से कपड़ा बन जाये तो कितना अच्छा हो ।‘ वह दौड़ी-दौड़ी गई जुलाहे के पास और उससे बोली -
” मेरा कपड़ा बुन दे रे, मेरा कपड़ा बुन दे रे । “
जुलाहे ने चिड़िया की रुई से उसके लिये एक छोटा सा रूमाल बुन कर दे दिया । अब तो चिड़िया और खुश हो गयी । सोचने लगी ‘ लेकिन यह रूमाल तो सफेद-सफेद है अगर यह रंगीन होता तो कितना सुन्दर लगता ।‘ वह दौड़ी-दौड़ी रंगरेज के पास गयी और उससे बोली -
” मेरा कपड़ा रंग दे रे, लाल रंग में रंग दे रे । “
रंगरेज ने चिड़िया के रूमाल को लाल रंग में रंग दिया । अब तो चिड़िया और भी खुश हो गयी । फिर सोचने लगी ‘ लेकिन इस कपड़े का मैं क्या करूँगी । अगर कोई इसकी मेरे लिये टोपी बना देता तो कितना अच्छा होता ।‘ वह दौड़ी-दौड़ी गयी दर्ज़ी के पास और उससे बोली -
” सीमा पोई कर दे रे, सीमा पोई कर दे रे । “
दर्ज़ी ने नन्हीं सी चिड़िया के कपड़े से उसके लिये एक सुन्दर सी टोपी बना दी और उसमें लगा दिया चमकीला-चमकीला गोटा । अब तो चिड़िया की खुशी का कोई ठिकाना ही नहीं था । टोपी पहन कर वह सीधे राजा के महल में जा पहुँची और राजा के सामने बैठ कर ज़ोर-ज़ोर से गाना गाने लगी -
” जैसी मेरी टोपी वैसी राजा की भी नहीं, जैसी मेरी टोपी वैसी राजा की भी नहीं । “
चिड़िया का गाना सुन कर राजा को बहुत गुस्सा आया । सोचने लगा ‘ छोटी सी चिडिया की इतनी हिम्मत कि यह मुझे चिढ़ा रही है । मेरे पास तो हीरे मोती जड़ा इतना सुन्दर मुकुट है । ‘ राजा गुस्से से चिल्लाया -
” सिपाहियों इस चिड़िया की टोपी छीन लो “
सिपाहियों ने चिड़िया से उसकी टोपी छीन कर राजा को दे दी ।
चिड़िया फिर गाना गाने लगी -
“ राजा कंगाल मेरी टोपी ले गया लाल, राजा कंगाल मेरी टोपी ले गया लाल । “
राजा शरमाया । छोटी सी चिड़िया की बात का क्या बुरा मानना । यह अपनी करनी पर पछता कर बोला -
” सिपाहियों चिड़िया की टोपी उसको वापिस कर दो । “ चिड़िया फिर गाना गाने लगी –
“ राजा डरपोक मेरी टोपी दे गया लाल, राजा डरपोक मेरी टोपी दे गया लाल । “
राजा परेशान हो गया । वह गुस्से में चिल्लाया -
” सिपाहियों इस चिड़िया को खड़की के बाहर फेंक दो । “
सिपाहियों ने चिड़िया को खिड़की के बाहर फेंक दिया । वहाँ पर थीं ढेर सारी कँटीली झाड़ियाँ । चिड़िया को काँटे चुभ गये लेकिन वह वहाँ भी ज़ोर-ज़ोर से गाने लगी -
“ अच्छे-अच्छे नाक कान छिदाये मेरे लाल, अच्छे-अच्छे नाक कान छिदाये मेरे लाल । “
राजा को और गुस्सा आया । वह फिर गुस्से से चिल्लाया -
” सिपाहियों इस चिड़िया को कूए में फेंक दो । “
सिपाहियों ने चिड़िया को कूए में फेंक दिया । शरारती चिड़िया वहाँ भी गाना गाने लगी -
” अच्छी-अच्छी गंगा नहलाये मेरे लाल, अच्छी-अच्छी गंगा नहलाये मेरे लाल । “
राजा और परेशान हो गया । सोचने लगा ‘ यह तो बड़ी ढीठ चिड़िया है । मुझे चिढ़ाये ही जा रही है । ‘ वह और ज़ोर से चिल्लाया-
” सिपाहियों इस चिड़िया को फाँसी पर लटका दो । “
सिपाहियों ने चिड़िया को सुतली से बाँध पेड़ से लटका दिया । चिड़िया वहाँ भी गाना गाने लगी -
” अच्छे-अच्छे झूला झुलाये मेरे लाल, अच्छे-अच्छे झूला झुलाये मेरे लाल । “
राजा गुस्से के मारे पागल हो गया । ज़ोर से चिल्ला कर बोला -
” सिपाहियों मैं इस चिड़िया की आवाज़ और नहीं सुनना चाहता इसे गड्ढा खोद कर ज़मीन में गाढ़ दो । “
सिपाहियों ने चिड़िया को गड्ढा खोद कर ज़मीन में गाढ़ दिया । उधर से आरही थी एक बिल्ली । ताज़ी-ताज़ी खुदी ज़मीन से उसे चिड़िया की खुशबू आयी तो वह वहीं बैठ कर ध्यान से उस गड्ढे को देखने लगी । तभी अंदर से आवाज़ आयी - ” बैठी-बैठी क्या देखे खोद-खोद के खा ले तू । “
बिल्ली चौंक गयी । सोचने लगी यह आवाज़ कहाँ से आयी । इतने में फिर से वही आवाज़ सुनाई दी -
” बैठी-बैठी क्या देखे खोद-खोद के खा ले तू । “
बिल्ली ने जल्दी-जल्दी अपने पंजों से ज़मीन को खोद दिया । अन्दर से निकल पड़ी वही शरारती चिड़िया । बिल्ली के मुँह में पानी आ गया । वह जैसे ही उसे खाने लिये आगे बढ़ी चिड़िया बोल पड़ी -
” गन्दी सन्दी क्यों खाये धोय धाय के खाले तू । “
बिल्ली ने सोचा यह बात भी ठीक है । वह चिड़िया को लेकर नदी के किनारे गयी और चिड़िया को अच्छी तरह से नहला धुला कर साफ कर दिया । अब जैसे ही वह चिड़िया को खाने के लिए दोबारा आगे बढ़ी चिड़िया फिर बोल पड़ी –
“ गीली-गीली क्यों खाये सूख जाऊँ तो खा ले तू । “
बेवकूफ़ बिल्ली फिर चिड़िया की बातों में आ गयी और उसने चिड़िया को धूप में सूखने के लिये रख दिया और खुद उसके पास बैठ कर उसके सूखने का इंतज़ार करने लगी । थोड़ी देर में चिड़िया के पंख सूख गये । जैसे ही बिल्ली उसे खाने के लिये आगे बढ़ी चिड़िया फुर्र से उड़ गयी और फिर राजा के महल में उसके सामने जाकर बैठ गयी और ज़ोर-ज़ोर से गाने लगी -
” जैसी मेरी टोपी वैसी राजा की भी नहीं, जैसी मेरी टोपी वैसी राजा की भी नहीं । “

साधना वैद

Wednesday, January 13, 2010

सहयोग --- एक बाल कविता

आओ साथियों हम मिलजुल कर खेलें ऐसे खेल
जिससे बढ़े सभी में एका, देश प्रेम और मेल ।

राजू तुम इंजन बन जाओ, गुड्डू गार्ड बनेगा,
मोहन हाथों में ले झण्डी रस्ता पास करेगा,
बाकी सब डिब्बे बन जाओ, खूब रहेगा खेल
छुक-छुक छक-छक करती कैसी प्यारी लगती रेल।

अब खेलेंगे चोर सिपाही महफिल खूब जमेगी
रानी खुफिया पुलिस बनेगी मीना न्याय करेगी,
देशद्रोह की सज़ा मिलेगी सबको होगी जेल
नहीं रियायत होगी उन पर ना ही होगी बेल ।

आओ अब हम खेलें घर-घर जिसकी अपनी शान
जिसमें काम सभी हैं करते फिर करते आराम,
राजू पानी, मीना खाना, सब्ज़ी मैं लाउँगा,
रानी साफ करेगी बर्तन जब मैं घर आउँगा ।

हुई शाम अब सब घर जाओ कल फिर होगा खेल
जाकर खूब पढ़ाई करना, हो मत जाना फेल,
खेल कूद है बहुत ज़रूरी, है यह सच्ची बात
लेकिन इसका नम्बर आता है पढ़ाई के बाद ।


साधना वैद

Monday, January 11, 2010

शरारती मिन्नी एक बाल काव्य कथा

थी एक प्यारी नन्हीं चींटी, मिन्नी उसका नाम,
नहीं किसीका कहना सुनती, थी बेहद शैतान ।

नहीं समय पर उठती थी वो, ना करती थी काम,
नहीं समय पर पढ़ती थी वो, ना स्कूल का काम
जब भी उसको काम बताओ बन जाती बीमार,
हरदम नये बहाने गढ़ती, थी बेहद मक्कार
मम्मी उससे बड़ी खफ़ा थीं, पापा थे नाराज़,
उनसे कहती 'कल कर दूँगी नहीं समय है आज|'

बारिश के दिन थे आने को, मम्मी थीं हैरान,
ढेरों काम पड़ा था घर में, लाना था सामान
मम्मी बोलीं मिन्नी से,‘तुम फिर कर लेना काम,
प्यारी बेटी चलो साथ हम ले आयें सामान
फिर आ जायेगी बारिश तो कैसी मुश्किल होगी
कैसे मैं खाना लाउंगी ! क्या तुम फिर खाओगी !'

मिन्नी बोली, ‘कैसे आऊँ बहुत दूर बाज़ार ,
मेरा पैर बहुत दुखता मैं चलने से लाचार
मम्मी अबकी तुम हो आओ मैं ना जा पाउँगी
अगली बार तुम्हारे संग मैं निश्चित ही जाउँगी‘
मम्मी मन ही मन झल्लाईं,समझ गयीं सब बात
इसको सबक सिखाना होगा जो कुछ भी हो आज ।

मम्मी तब सखियों के संग जा ले आईं सामान
मिन्नी सो गई ऊधम करते इन सबसे अनजान
तभी अचानक बड़ी ज़ोर से मेघ गगन में गरजे
बिजली चमकी, हवा चली और बादल गरजे बरसे
मिन्नी सोई जिस पत्ते पर बह निकला पानी में
सपने में खोई थी मिन्नी दुनिया अनजानी में ।

सपने में सब उसके नौकर रानी बनी हुई थी
सबको देती हुकुम छड़ी वो लेकर खड़ी हुई थी
बरफी का था महल,खीर का था मोहक तालाब,
लड्डू, पेड़े, खुरमें झुक कर करते थे आदाब,
बूँदी का था फर्श, पेड़ से लटकी हुई जलेबी,
रसगुल्ले से गेंद खेलते थे बाबू और बेबी ।

सोहन हलुए के आसन पर बैठे चींटे राजा,
केक, पेस्ट्री, बालूशाही बजा रहे थे बाजा
इतनी ढेर मिठाई से मिन्नी का मन ललचाया
टूटा बाँध सबर का उसके मुँह में पानी आया
उसको लगा पेट में चूहों ने है रेस लगाई
भूल शराफत मिन्नी पूरी ताकत से चिल्लाई ।

‘फौरन खाना लेकर आओ मुझको भूख लगी है’
तभी अचानक आँख खुली तो देखा झड़ी लगी है
झलमल पानी की लहरों पर पत्ता झूल रहा था
डर के मारे थर थर मिन्नी का मन डोल रहा था
‘मम्मी मम्मी’ बड़ी ज़ोर से मिन्नी तब चिल्लाई
’मुझे बचाओ!,घर पहुँचाओ!’ वह रोई घबराई ।

‘जो मम्मी का कहना सुनती तो क्यों ऐसा होता
मैं भी मम्मी के संग सोती जैसे भैया सोता’
मिन्नी मन ही मन शरमाई, सकुचाई, पछताई'
अब न कभी कहना टालूँगी’ बात समझ में आई
‘बड़े हमेशा करते हैं बच्चों के हित की बात
सुनना चहिये हमें हमेशा उसे ध्यान के साथ।'


पानी में रहता था कछुआ आया सुन आवाज़
पहुँचाया उसने मिन्नी को उसके घर के पास
'प्यारे बच्चों तुम भी इतना हरदम रखना ध्यान
सदा मानना कहना सबका, रखना सबका मान
कहना टाल बड़ों का तुम हो सकते हो हैरान
मिन्नी सा हो सकता है तुम सबका भी अंजाम ।'


साधना वैद