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Saturday, February 25, 2012

चलो चलें माँ .... ( एक लघु कथा )



नन्हा लंगूर डिम्पी अपने कान में उंगली डाले ज़ोर ज़ोर से चीख रहा था ! जिस पेड़ पर उसका घर था उसके नीचे बहुत सारे बच्चे होली के रंगों से रंगे पुते ढोल बजा बजा कर हुड़दंग मचा रहे थे ! कुछ बच्चों के हाथ में कुल्हाड़ी थी तो कुछ के हाथ में धारदार बाँख ! ये सब होली जलाने के लिये लकड़ी जमा करने निकले थे ! डिम्पी डर से थर थर काँप रहा था ! डिम्पी की आवाज़ सुन दूर से लम्बी लम्बी छलांगे भर पल भर में उसकी माँ उसके पास पहुँच गयी और ज़ोर से उसे अपनी छाती से चिपटा लिया ! बच्चों का हुजूम देख माँ के माथे पर भी चिंता की लकीरें उभर आयी थीं !
सहमे डिम्पी ने माँ के गले लग पूछा, “ माँ क्या ये फिर से हमारा घर तोड़ देंगे ? अब हम किधर जायेंगे ? माँ पहले हम कितने खुश थे ! शहर के पास वाले जंगल में जहाँ हमारा घर था वहाँ मैं अपने दोस्तों के साथ कितना खेलता था ! वहाँ कितने सारे पेड़ थे ! हम सब सारे पेड़ों पर कितनी धमाचौकड़ी मचाते थे ! लेकिन एक दिन वहाँ कुछ लोग आये ! ज़मीन की नाप जोख हुई और पता चला कि वहाँ कोई कॉलेज बनाया जायेगा ! उसके बाद एक दिन बहुत सारे लोगों ने आकर वहाँ के सारे पेड़ काट डाले ! हम लोगों के घर भी उजड़ गये ! हम शहर से और दूर वाले जंगल में चले गये ! मेरे सारे दोस्त बिछड़ गये लेकिन फिर भी हम वहाँ मन लगा रहे थे कि कुछ दिनों के बाद फिर से वही सब कुछ दोहराया जाने लगा ! पता चला इस बार वहाँ रिहाइशी कॉलॉनी बनायी जा रही थी जो अपने आप में एक शहर की तरह थी ! इसमें स्कूल, पार्क, अस्पताल, स्वीमिंग पूल, शॉपिंग मॉल सब बनाये जाने वाले थे ! एक बार फिर हमारे घर बहुत बड़े पैमाने पर उजाड़े गये ! इतने बड़े अभियान के लिये दूर दूर तक जंगल साफ कर दिये गये ! क्यों माँ ये इंसान कभी अपने घर के लिये, कभी अपने घर के खिड़की दरवाज़ों के लिये, कभी फर्नीचर के लिये तो कभी कॉपी किताबों के लिये तो कभी मरने के बाद श्मशान में लाशों को जलाने के लिये हमसे पूछे बिना हमारे घर क्यों उजाड़ देते हैं ? क्या इनकी सारी ज़रूरतें हमारे घरों से ही पूरी होती हैं ? हम कभी भूले भटके इनके घर के बगीचे में घुस जाते हैं तो ये बम पटाखे पत्थर डंडे सब लेकर हम पर क्यों पिल पड़ते हैं माँ ? ये हमारे सारे खाने पीने के साधन वाले पेड़ अपनी ज़रूरत के लिये काट डालते हैं और हम अगर इनके घर से एक केला भी उठा लें तो ये हमें पकड़वाने के लिये नगर निगम तक शिकायत लेकर क्यों पहुँच जाते हैं माँ ? क्या इंसानों की तरह हम वन्य जीव अपने बुनियादी अधिकारों के लिये नहीं लड़ सकते ? सबसे होशियार माने जाने वाले इंसान की सोच इतनी तंग और छोटी क्यों होती है माँ ? तुम बताओ माँ क्या कहीं कोई जगह ऐसी है जहाँ हम इस आतंकी इंसान के अत्याचारों से बच कर सुकून से रह सकें ? जहाँ यह स्वार्थी इंसान अपनी ज़रूरतों के लिये हमारी शांत सुकून भरी ज़िन्दगी में खलल न डाल सके और मैं चैन से तुम्हारी गोद में सो सकूँ ?
“ चलो चलें माँ सपनों के गाँव में
काँटों से दूर कहीं फूलों की छाँव में ! ”


साधना वैद

20 comments :

  1. ऐसे न जाने कितने डिम्पी बेचारे बेघर हो चले हम लोगों के आशियाने सजाने में...वृक्षों की इस तरह कम होती तादाद का खमिजियाना भी हमें ही भुगतना होगा.

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  2. धन्यवाद समीर जी !

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  3. मनुष्य स्वार्थी हो चला है...
    अन्य जीवों और वनस्पतियों के बारे में सोचने का वक्त कहाँ ....
    अच्छी कहानी साधना जी..

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  4. जानवरों के मूक दर्द की भाषा को कितनी सजीवता से आपने उभारा है ... इन्सान अपने मद में सबकुछ ख़त्म करता जा रहा है . अबोले पशुओं , प्रकृति से निर्विकार वह कर रहा सिर्फ विनाश

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  5. लघु कथा के माध्यम से सार्थक मुद्दा उठाया है ...

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  6. “ चलो चलें माँ सपनों के गाँव में
    काँटों से दूर कहीं फूलों की छाँव में ! ”
    अब कहाँ रहीं वो छांव्।

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  7. वास्तव में स्वार्थी मनुष्य अन्य जीवों की चिंता किये बिना सिर्फ अपना हित देखता है .....सुंदर लघु कथा.....

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  8. सुकून छीन लेती आधुनिकता और परम्पराओं में लिपटे तीज और त्यौहार काश पीढी भाव समझती त्योहारों के

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  9. कल 27/02/2012 को आपकी यह पोस्ट नयी पुरानी हलचल पर लिंक की जा रही हैं.आपके सुझावों का स्वागत है .
    धन्यवाद!

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  10. बहुत सुन्दर प्रस्तुति
    आपकी इस सुन्दर प्रविष्टि की चर्चा कल दिनांक 27-02-2012 को सोमवारीय चर्चामंच पर भी होगी। सूचनार्थ

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  11. मनुष्य अपने स्वार्थ के लिए कितना गिर जाता है कि कभी एनी प्राणियों के बारे में सोचता ही नहीं
    लधु कथा के माध्यम से बहुत सुन्दर बात कही है |कहानी बहुत अच्छी लगी |हार्दिक बधाई |
    आशा

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  12. सार्थक सशक्त कथा...
    सादर.

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  13. साधना जी,आज इंसान अपने सुख के खातिर इस हद तक जा सकता,आपने सही कहा इस सुन्दर कहानी के माध्यम से,...
    अति उत्तम,सराहनीय प्रेरक प्रस्तुति,
    समर्थक बन गया हूँ आपभी बने मुझे खुशी होगी.

    NEW POST काव्यान्जलि ...: चिंगारी...

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  14. आदमी किसी को भी चों से नहीं जीने देगा ... जंगल काटता जायगा ...

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  15. Nice .

    aapki charcha yahan
    ब्लॉगर्स मीट वीकली (32) Gayatri Mantra

    http://hbfint.blogspot.in/2012/02/32-gayatri-mantra.html

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  16. विचारोत्तेजक कहानी है. अच्छी लगी.

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  17. .....और 'हम' जानवरों को वहशी कहते हैं .....!!!

    दिल को छू गयी यह रचना

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  18. बहुत ही ज्वलंत और सामयिक विषय पर इस कहानी के माध्यम से प्रकाश डाला गया है.
    इंसान आखिर कब चेतेगा...कितने ही डीम्पियों के घर उजाड़ने का खामियाजा तो उसे भुगतना ही पड़ेगा...और तब पछता कर भी हाथ कुछ नहीं आएगा

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  19. jeevan men sabko jeene ka haq hai lekin ham apane svarth ke liye vanyajeev hi kya insaanon ke aashiyane bhi ujaad dene men jara sa bhi sankoch nahin karte hain.
    ek shikshaprad kahani ke liye aabhar !

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  20. आदरणीय मौसीजी,सादर वन्दे, सर्वप्रथम आपका आभार जो आप मेरा लगातार प्रोत्त्साहन बढ़ा रहीं हैं,दरअसल ये रचनाएँ छ -सात वर्ष पूर्व की हैं। और बस वक्त की मेरबनी रही की वो कुछ ऐसा आया कि भावनाओं का ज्वार कागज पर उतरता गया।
    आज आपकी रचना ने फिर अपना कर्त्तव्य स्मरण करा दिया कि अभी भी बहुत कुछ बाकि है जो किया नहीं गया है। आभार।

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