Followers

Wednesday, June 26, 2013

छलना


कब तक तुम उसे
इसी तरह छलते रहोगे !
कभी प्यार जता के,
कभी अधिकार जता के,
कभी कातर होकर याचना करके,
तो कभी बाहुबल से अपना
शौर्य और पराक्रम दिखा के,
कभी छल बल कौशल से
उसके भोलेपन का फ़ायदा उठाके,
तो कभी सामाजिक मर्यादाओं की
दुहाई देकर उसकी कोमलतम
भावनाओं का सौदा करके !
 


सनातन काल से तुम
यही तो करते आ रहे हो !
कभी राम बन कर
एक तुच्छ मूढ़ व्यक्ति की
क्षुद्र सोच को संतुष्ट करने के लिये
तुमने घिनौने लांछन लगा
पतिव्रता सीता का
अकारण परित्याग किया 
और उसकी अग्निपरीक्षा लेकर
उसके स्त्रीत्व का अपमान किया !
तुम्हारी हृदयहीनता के कारण
सीता क्षुब्ध हो धरती में समा गयी
लेकिन तुम फिर भी
‘मर्यादा पुरुषोत्तम’ ही बने रहे !
 



भरी सभा में धन संपत्ति की तरह
अपनी पत्नी द्रौपदी को 
चौसर की बाजी में हार कर
और दुशासन के हाथों उसका
चीरहरण का लज्जाजनक दृश्य देख
तुम्हें अपने पौरुष पर
बड़ा अभिमान हुआ होगा ना !
पाँच-पाँच पति मिल कर भी
एक पत्नी के सतीत्व की
रक्षा नहीं कर सके !
क्यों युधिष्ठिर
बड़ा गर्व हुआ होगा न तुम्हें ?
पत्नी की लाज हरी गयी
तो क्या हुआ
तुम तो आज भी
‘धर्मराज’ कहलाते हो !
क्या यही ‘धर्म’ था तुम्हारा ?


और तुम सिद्धार्थ
किस सत्य की खोज में तुम
अपने सारे दायित्व
औरों के सर मढ़ कर
वैराग्य लेने का सोच सके ?
क्या वृद्ध माता पिता ,
स्त्री पुत्र किसी के प्रति
तुम्हारा कोई कर्तव्य न था ?
तुमने तो जाने से पूर्व
यशोधरा को जगाना भी
आवश्यक न समझा !
कौन सा ज्ञान प्राप्त हो गया तुम्हें ?
सृष्टि का कौन सा नियम बदल गया ?
क्या संसार में आज लोग
वृद्ध नहीं होते ?
क्या संसार में आज लोग
रुग्ण नहीं होते ?
या तुम्हारी तपस्या के फलस्वरूप
संसार में सब अजर अमर हो गये ?
अब किसीकी मृत्यु नहीं होती ?
संसार में सभी कुछ उसी तरह से
आज भी चल रहा है
लेकिन तुम अवश्य अपनी सारी
अकर्मण्यताओं के बाद भी
‘भगवान’ बने बैठे हो !
आखिर कब तक तुम
नारी के कंधे पर बन्दूक रख कर
अपने निशाने लगाते रहोगे ?
अब तो बस करो !
कब तलक ‘देवी’ बनाओगे उसे
मानवी भी ना समझ पाये जिसे !
 

साधना वैद

No comments :

Post a Comment