सोचा था कभी याद ना
करेंगे तुम्हें
लेकिन हर पल सिर्फ
तुम्हारी
चुभती यादों के
दंशों को झेलते ही रहे ,
सोचा था तिल-तिल कर मिटा
देंगे खुद को
लेकिन हर पल समझौते
की सुई से
बस अपने गहरे ज़ख्मों
को सिलते ही रहे ,
लाख तुम्हें भुलाना
चाहा हमने मगर
पल भर को भी भुला ही
ना सके तुमको
लाख मिटाना चाहा खुद
को हमने मगर
पल भर को भी मिटा ही
ना सके खुद को
ज़िंदगी की चौसर के
हर खाने पर हम
जाने क्यों ज़रूरत बेज़रूरत
चलते ही रहे
तुम्हारी बिछाई इस
बिसात पर जाने क्यों
यह खेल शह और मात का
खेलते ही रहे !
साधना वैद
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