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Wednesday, March 7, 2018

परिक्रमा

अन्तर्राष्ट्रीय महिला दिवस पर आप सभीको हार्दिक शुभकामनाएं ! 



कितना दर्द,
कितनी प्रताड़ना,
कितना अपमान
उसे और सहना होगा !
कब तक अपने आत्माभिमान को
अपने स्वत्व से अलग कर
दरवाज़े के पीछे लगी खूँटी पर
टाँग कर रखना होगा !
कब तक अपनी खुद्दारी को
हार कर अपने लिये
और नये बंधनों,
और कठिन पाबंदियों,
और तल्ख़ सख्तियों के
दस्तावेजों पर उसे
हस्ताक्षर करने होंगे !
कब तक वह 
परिवार के हर सदस्य की 
ज़रूरतों, सुविधाओं 
और आराम के लिए 
घर की धुरी पर अहर्निश 
कोल्हू के बैल की तरह 
परिक्रमा लगाती रहेगी ! 
अब उसे पैरों में पड़ी
इन जंजीरों को उतार कर
फेंकना ही होगा !
अपनी गर्दन पर रखे 
कोल्हू के इस हल को
उतार कर 
नीचे रखना ही होगा ! 
उसे भी अधिकार है 
खुली हवा में साँस लेने का ! 
इस बार जो कदम इस
दहलीज को लाँघ कर
बाहर निकलेंगे
वे वापिस नहीं लौटेंगे
यह तय है !
धूप की रोशनी में
पार्क की बेंच पर लिया गया
यह निर्णय शाम होते-होते
शिथिल होने लगता है 
घर से बाहर निकल कर
कहाँ जाये ?
मन में असीम दुश्चिंतायें
सर उठाने लगती हैं !
कौन अचानक से सिर पड़े
इस अनचाहे मेहमान का
अपने घर में स्वागत करेगा ?
कौन मँहगाई के इस दौर में
उसे अपनी दुनिया में
खुशी-खुशी शामिल करेगा ?
किस घर का कुंडा खटखटाये ?
कौन अपने बच्चों के मुँह से
निवाले निकाल कर
उसके मुँह में डालेगा ?
इस उम्र में उसे कौन नौकरी देगा ?
कौन सा काम वह सीख पायेगी ?
रात का अन्धेरा गहराते ही
सब कुछ कितना भयावह
और निष्ठुर सा हो उठता है !
किसी बस, ऑटो या टैक्सी में
बैठने की हिम्मत नहीं होती !
कहीं उसे भी ‘दामिनी’ जैसा ही
कुछ ना झेलना पड़ जाये !
धीमे-धीमे उठते
हर पल मन-मन भारी होते कदम
उसी परिधि पर चलते हुए
फिर उसी दहलीज पर
जा खड़े होते हैं
जहाँ कभी ना लौटने का
संकल्प ले वे बाहर निकले थे !
अचानक यही दहलीज
लक्ष्मण रेखा बन उसकी
सुरक्षा की गारंटी बन जाती है !
घर की दीवारें किसी जेल की
काल कोठरी की तरह नहीं वरन
सुदृढ़ किले सी मजबूत होकर
उसके मन में असीम आश्वस्ति
और आत्मविश्वास का संचार
कर जाती हैं !
प्रताड़ना और अपमान का हर शब्द
कुनैन सा कड़वा मगर
हितकारी लगने लगता है !
अनायास ही ये परिधियाँ उसे
बड़ी पावन लगने लगती हैं !
अपनी गृहस्थी के खूँटे से बँधी 
इन्हीं परिधियों पर अनवरत
चलते रहने में ही उसे
अपने जीवन की सम्पूर्ण यात्रा
का सार दिखाई देने लगता है,
जिनकी दिशा और दशा 
लाख चाह कर भी
वह कभी बदल नहीं पाई !


साधना वैद

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