तुम्हारे महल के 
सारे ऐशो आराम ठुकरा कर 
मेरा बंजारा मन आज भी 
उसी तम्बू में अटका हुआ है 
जहाँ बरसों पहले 
ज़मीन पर बिछी पतली सी दरी पर 
मेरे हलके से शॉल को लपेट कर 
हम दोनों ने दिसंबर की वो 
ठिठुरती रात बिताई थी ! 
जाने कहाँ से तुम 
मिट्टी के कुल्हड़ में गुड़ अदरक की 
गरमागरम चाय ले आये थे 
और हम दोनों ने 
दूर समंदर की लहरों की बेताब 
आवाजाही को देखते देखते 
घूँट घूँट एक ही कुल्हड़ से देर तक 
उस चाय को पिया था ! 
तेज़ सीली सीली समुद्री हवा से 
ढहने को तैयार वो थर्राता हुआ तम्बू 
सर्दी से कँपकपाता बदन और 
एक दूसरे की आँखों में उमड़ आये 
सागर की गहराइयों को नाप  
उसमें डूबने को आतुर हम और तुम ! 
जाने क्यों लगता है 
जैसे सारी कायनात उस रात 
उस तम्बू में ठहर गयी थी ! 
और साथ में ठहर गयी थीं 
मेरी सारी चाहतें, सारी खुशियाँ, 
सारी हसरतें, सारी ज़िंदगी !
जिसे मैं आज भी तलाश रही हूँ 
और उसे ढूँढते ढूँढते 
मेरा मन बार बार पहुँच जाता है 
समंदर के किनारे लगे उसी तम्बू में 
जिसका अब वहाँ दूर दूर तक 
कोई अस्तित्व नहीं ! 
चित्र - गूगल से साभार 
साधना वैद 

 
 
आपकी लिखी रचना "सांध्य दैनिक मुखरित मौन में" आज रविवार 09 फरवरी 2020 को साझा की गई है...... "सांध्य दैनिक मुखरित मौन में" पर आप भी आइएगा....धन्यवाद!
ReplyDeleteआपका हृदय से बहुत बहुत धन्यवाद एवं आभार प्रिय सखी यशोदा जी ! सप्रेम वन्दे !
Deleteबेहद सुन्दर लेखन । अंत तक बस पढता ही रह गया...
ReplyDeleteबहुत-बहुत शुभकामनाएँ ।।।।
आपका हृदय से बहुत बहुत धन्यवाद एवं आभार पुरुषोत्तम जी ! सादर !
Deleteउम्दा लिखा है |
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