रोज़ रात को आँखें मूँदे
अपने सिरहाने तले
ढूँढती हूँ तुम्हारे उस दिव्य अंश को
जो बड़ी ममता से मेरे माथे पर
थपकियाँ दे मुझे सुलाने आ जाता है,
मेरी उलझी अलकों को अपनी तराशी हुई
उँगलियों से रोज़ सुलझा जाता है,
अपने मुलायम आँचल से
मेरे स्वेद बिन्दुओं को पोंछ
मुझ पर शीतल हवा कर देता है !
खो जाती हूँ मैं अनोखे आनंदलोक में
सुनते सुनते उन अलौकिक स्वरों को
जिनमें स्वरबद्ध कर तुम धीमे धीमे
मुझे लोरी सुना जाती हो !
तुम्हारे प्रेम, तुम्हारे दुलार,
तुम्हारे वात्सल्य, तुम्हारी स्निग्धता,
तुम्हारी ममता, तुम्हारी करुणा,
तुम्हारी कोमलता के इस
इन्द्रधनुषी इंद्रजाल को
अपने बदन के चहुँ ओर लपेट
हर रात बड़े सुकून से सो जाती हूँ मैं
सुबह उठने के लिये !
लेकिन रात का तुम्हारा रचाया
यह इंद्रजाल मुझे पूरी तरह से
तैयार कर देता है इस शुष्क दुनिया के
कटु यथार्थ की बेरहम सच्चाईयों को
झेलने के लिए !
कहो तो, कैसे मानूँ तुम्हारा आभार !
साधना वैद
मन के सुकून के लिए शायद मन ही स्वयं ऐसे इंद्रजाल रचाता है .... इस शुष्क दुनिया से लड़ने के लिए हम खुद को तैयार करते हैं ...
ReplyDeleteसुन्दर रचना ... काफी इंद्रजाल फैलाया आपने .
हार्दिक धन्यवाद संगीता जी ! बहुत बहुत आभार आपका !
Deleteओह कितनी मार्मिक और हृदयस्पर्शी रचना है साधना जी | शायद ममत्व का कोई सानी संसार में नहीं | ममता की भीनी स्मृतियाँ हर रोज जीवन के संघर्ष के लिए तैयार करती हुई अपना अस्तित्व कायम रखती हैं | भावभीने सृजन के लिए बधाई | मन मोह गया ये इंद्रजाल |
ReplyDeleteआपको रचना अच्छी लगी मेरा लेखन सार्थक हुआ रेणु जी ! हृदय से आभार आपका !
Deleteसार्थक लेखन, सुन्दर रचना।
ReplyDeleteहार्दिक धन्यवाद शास्त्री जी ! आपका हृदय से बहुत बहुत आभार !
Deleteममता से परिपूर्ण यह इंद्रजाल सदा बना रहे ... बहुत सुंदर भाव
ReplyDeleteहार्दिक धन्यवाद संध्या जी ! बहुत बहुत आभार आपका !
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