स्वर्ग से नीचे
धरा पर उतरी
पहाड़ी नदी
करने आई
उद्धार जगत का
कल्याणी नदी
बहती जाती
अथक अहर्निश
युगों युगों से
करती रही
धरा अभिसिंचित
ये सदियों से
जीवन यह
है अर्पित तुमको
हे रत्नाकर
उमड़ चली
मिलने को तुमसे
मेरे सागर
सूर्य रश्मि से
पिघली हिमनद
सकुचाई सी
हँसती गाती
छल छल बहती
इठलाई सी
उथली धारा
बहती कल कल
प्रेम की धनी
उच्च चोटी से
झर झर झरती
झरना बनी
नीचे आकर
बन गयी नदिया
मिल धारा से
उन्मुक्त हुई
निर्बंध बह चली
हिम कारा से
बहे वेग से
भूमि पर आकर
मंथर धारा
मुग्ध हिया में
उल्लास जगत का
समाया सारा
एक ही साध
हो जाऊँ समाहित
पिया अंग मैं
रंग जाऊँगी
इक लय होकर
पिया रंग मैं
मेरा सागर
मधुर या कड़वा
मेरा आलय
सुख या दुःख
अमृत या हो विष
है देवालय
चाहत बस
पर्याय प्रणय की
मैं बन जाऊँ
मिसाल बनूँ
साजन के रंग में
मैं रंग जाऊं
साधना वैद
बहुत खूब
ReplyDeleteबहुत सुन्दर अभिव्यक्ति !!
ReplyDeleteअरे वाह ! हार्दिक स्वागत है अनुपमा जी ! बड़े दिनों के बाद दर्शन हुए आपके ! हृदय से बहुत बहुत धन्यवाद एवं आभार आपका !
Deleteआपका हृदय से बहुत बहुत धन्यवाद एवं आभार मीना जी ! सप्रेम वन्दे !
ReplyDeleteसुप्रभात
ReplyDeleteशानदार हाइकु बहुत अच्छे लगे
हार्दिक धन्यवाद जीजी ! जन्मदिन की बहुत बहुत बधाई एवं अनंत अशेष शुभकामनाएं ! दिल से आभार आपका !
Deleteबेहतरीन हाइकू ।पहाड़ से उतर साजन के रंग में रंगने तक ।
ReplyDeleteआपकी प्रतिक्रिया अनमोल है मेरे लिए संगीता जी ! आपका हृदय से बहुत बहुत धन्यवाद एवं आभार !
Deleteहाइकू शैली में नदी की सुंदर यात्रा का अनुपम चित्रण
ReplyDeleteहार्दिक धन्यवाद अनीता जी ! बहुत ही प्रसन्नता का अनुभव हो रहा है आपको अपने ब्लॉग पर देख कर ! पाठकों के कदम फिर से ब्लॉग्स की राह पर मुड़ने लगे हैं ! शुभ संकेत हैं यह ! दिल से बहुत बहुत आभार आपका !
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