नहीं चाहती आर्त हृदय की
मेरी कोई भी पुकार अब
कभी भी तुम तक पहुँचे,
नहीं चाहती व्यथा विगलित
मेरा एक भी शब्द कभी भूले से भी
तुम्हारी आँखों के सामने से गुज़रे ,
नहीं चाहती वेदना से जर्जर
मेरे अवरुद्ध कंठ का एक भी
रुँधा हुआ स्वर कभी गलती से भी
तुम्हारे कानों में पड़े,
नहीं चाहती असह्य वेदना से छलक आये
मेरे आँसुओं को कभी तुम्हारी
उँगलियों का किनारा मिले !
इन सारी इच्छाओं की मृत देहों को
अपने मन के श्मशान में मैं
बहुत पहले ही अग्नि को
समर्पित कर चुकी हूँ !
अब तो जो उस वीराने में
रह रह कर सुनाई देता है
वह सिर्फ एक शोक गीत है
जिसे लिखा भी मैंने है,
स्वरबद्ध भी मैंने ही किया है,
गाया भी मैंने है और जिसे
सुनती भी सिर्फ मैं ही हूँ !
साधना वैद
आपकी इस प्रविष्टि के लिंक की चर्चा कल बुधवार (13-04-2022) को चर्चा मंच "गुलमोहर का रूप सबको भा रहा" (चर्चा अंक 4399) पर भी होगी!
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सूचना देने का उद्देश्य यह है कि आप उपरोक्त लिंक पर पधार कर चर्चा मंच के अंक का अवलोकन करे और अपनी मूल्यवान प्रतिक्रिया से अवगत करायें।
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हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक' --
अरे वाह ! आपका ह्रदय से बहुत बहुत धन्यवाद एवं आभार शास्त्री जी ! सादर वन्दे !
Deleteबहुत सुंदर रचना
ReplyDeleteहार्दिक धन्यवाद केडिया जी ! बहुत बहुत आभार आपका !
Deleteसुन्दर भावपूर्ण रचना |उम्दा शब्द चयन |
ReplyDeleteहार्दिक धन्यवाद जीजी ! बहुत बहुत आभार आपका !
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