मोहल्ले में बच्चों का हुजूम हुडदंग
में व्यस्त था ! सबके चहरे लाल हरे नीले पीले गुलाल और रंग से ऐसे लिपे पुते थे कि
पहचानना भी मुश्किल था ! ढोल बजाते, गीत गाते, हर आने जाने वाले पर रंग भरे
गुब्बारे से निशाना लगाते सब मस्ती में डूबे हुए थे ! घर घर जाकर अपना ढोल बजाते,
रंग गुलाल लगाते, त्यौहारी पाते और सबका आशीर्वाद बटोरते बच्चे होली का पर्व
उत्साह से मना रहे थे !
शर्मा जी के यहाँ जैसे ही बच्चों का दल पहुँचा उनकी बुज़ुर्ग माताजी थाली में ढेर
सारी गुजिया, शकर पारे, मठरियाँ और अन्य पकवान ले आईं बच्चों के लिए ! गुजिया देख
कर बच्चों की आँखें चमक उठीं ! सब प्रेम से खा रहे थे लेकिन दरवाज़े की ओट में खड़ा
मोहन पकवान खाने की बजाय चुपचाप बाहर सड़क के नज़ारे देख रहा था !
“अरे बेटा तुम क्यों नहीं खा रहे हो गुजिया ! आओ अन्दर ! तुम भी लो ना सबके साथ !”
“नहीं आंटी जी ! मुझे गुजिया नहीं चाहिए !” और वह धीरे धीरे बाहर चला गया !
“इसे क्या हुआ है ? इसने गुजिया क्यों नहीं खाई ?” माँ जी ने आश्चर्य से पूछा !
“इसकी छोटी बहन को दो साल पहले एक आंटी ने पकवान की थाली से गुजिया उठा लेने पर बहुत मारा था तब से इसने गुजिया खाना छोड़ दिया है !”
एक बच्चा तपाक से बोला ! इतना कह कर इशारे से माँजी के कान के पास फुसफुसाते हुए उसने बताया, “आंटी जी यह छोटी जात का है ना इसीलिये !”
माँजी के चहरे पर पीड़ा के भाव स्पष्ट दिखाई दे रहे थे ! उन्होंने बच्चे से पूछा, “तुम जानते हो इसका घर कहाँ है ? मुझे ले चलोगे उसके यहाँ ?”
थोड़ी देर में पकवानों से भरा एक बड़ा सा डिब्बा लेकर माँजी मोहन के द्वार पर खड़ी हुई थीं और मोहन और उसकी छोटी बहन को स्वाद ले लेकर गुजिया खाते हुए देख कर हर्षित हो रही थीं !
साधना वैद
सुप्रभात
ReplyDeleteबहुत खूब |
अरे वाह ! हार्दिक धन्यवाद जीजी ! बहुत बहुत आभार आपका !
Deleteजात-पात के भेद को छोड़ बच्चों को प्रेम और सौहार्द देकर मनाये पर्व...
ReplyDeleteबहुत ही सुन्दर संदेशप्रद सृजन।
हार्दिक धन्यवाद सुधा जी ! आपने लघुकथा के मर्म को सराहा मेरा लिखना सफल हुआ ! बहुत बहुत आभार आपका !
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