देखो लग गए हैं पंख
मेरे सपनों को
थिरकने लगे हैं मेरे पाँव
और फ़ैलने लगे हैं
पानी के ढेर सारे
छोटे बड़े वलय मेरे चहुँ ओर
मेरे सामने है
खारे पानी से भरे सागर का
असीम, अगाध, अथाह विस्तार
और मेरे मन में है मीठे सपनों की
बहुत ऊँची उड़ान !
इतनी ऊँची कि जहाँ तक
कोई पंछी, कोई जहाज न पहुँच सके !
सब कहते हैं मैं बड़ी हो गयी हूँ !
लेकिन देखो तो ज़रा
कहाँ से बड़ी हो गयी हूँ मैं ?
पानी में मेरा प्रतिबिम्ब देखो
कितनी छोटी सी तो हूँ मैं !
बिलकुल नन्ही सी
अबोध, मासूम, नाज़ुक, भोली !
तितलियों को अपनी झोली में समेटे
यहाँ वहाँ उड़ती फिरती हूँ मैं भी
तितलियों की ही तरह !
हाँ इतना ज़रूर है
तितलियों के साथ
अब उड़ने लगा है मेरा भी मन
क्या यही होता है बड़ा होना ?
साधना वैद
उम्दा शब्द चयन |भाव और विचारों से परिपूर्ण रचना |
ReplyDeleteबहुत सुंदर रचना
ReplyDeleteआपका हृदय से बहुत बहुत धन्यवाद एवं आभार शास्त्री जी ! सादर वन्दे !
ReplyDeleteहोता होगा । फिलहाल उङान भरी जाए ।
ReplyDeleteकोमल सुंदर रचना ।
हार्दिक धन्यवाद नूपुरम जी ! बहुत बहुत आभार आपका !
Deleteकोमल भावों से पिरोयी गयी सुंदर रचना
ReplyDeleteहार्दिक धन्यवाद अनीता जे ! बहुत बहुत आभार आपका !
Deleteमन उड़ने लगा है....
ReplyDeleteवाह!!!!
हार्दिक धन्यवाद सुधा जी ! बहुत बहुत आभार आपका !
Deleteबहुत ही सुंदर भाव दी।
ReplyDeleteबेहतरीन 👌