किनारे के करीब पहुँची
मेरी नौका एक बार फिर
जाने कैसे उत्ताल तरंगों की
चपेट में आ सागर की भयाकुल
भँवरों के बीच घिर गयी है !
महाकुम्भ में एकत्रित कोटिश:
अनजान अपरिचित लोगों की
भीड़ में एक बार फिर
तुम्हारी उँगली मेरे हाथ से
छूट गयी है !
कोई दिशा, कोई राह
सूझती ही नहीं क्योंकि
तुम्हारे कदमों के निशाँ
ढूँढने के लिये ज़मीं का
दिखाई देना भी तो
ज़रूरी है !
है ना ?
लेकिन आश्चर्य है
अब भँवर में डूबने से
डर नहीं लगता,
इस अपार जन समूह में
गुम हो जाने की भी
कोई आशंका नहीं होती !
अब मन में कोई भय
कोई व्याकुलता नहीं है !
मरीचिका के पीछे दौड़ते
रहने वाले मेरे पाँव अब
थम से गये हैं !
लगता है उन्हें मरीचिका का
सच पता चल गया है !
अब क्षितिज तक
उड़ कर जाने का भी कोई
आकर्षण नहीं रहा
क्योंकि मन भी
शायद यह जान गया है
कि समस्त बृह्माण्ड में
ऐसी कोई जगह ही नहीं
जहाँ ज़मीन और आसमान
एक दूसरे से मिलते हों !
भ्रमों का टूटना भी तो
ज़रूरी होता है !
है ना ?
जितनी जल्दी टूट जायें
पीर की उम्र उतनी ही
कम हो जाती है !
अब मन में एक अजब सी
शान्ति है, सुकून है, और है
एक अनोखी तटस्थता !
अब सन्नाटों से डर नहीं लगता
क्योंकि इनसे तो सालों पुराना
बड़ा मजबूत रिश्ता है !
मन में बड़ा आराम है
बिलकुल वैसा ही जैसा
थकन भरी लम्बी यात्रा के बाद
अपने सूने निर्जन कमरे के
एकांत में लौटने के बाद
मिलता है !
साधना वैद
०बहुत सुन्दर भाव लिए अभिव्यक्ति |
ReplyDelete